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हिन्दी सार १०--११ निश्चय नयसे जीव अपने असंख्यात प्रदेशोंमें रहता है तथा व्यवहार नयसे कर्मानुसार प्राप्त शरीरमें रहता है।
6१२ द्रव्यदृष्टिसे जीवकी स्थिति अनाद्यनन्त है। कभी भी जीव चैतन्य जीवद्रव्यत्व उपयोग असंख्यातप्रदेशित्व आदि सामान्य स्वरूपको नहीं छोड़ सकता। पर्यायकी अपेक्षा स्थिति एक समय आदि अनेक प्रकार की है।
१३ जीवद्रव्य नारक मनुष्य आदि पर्यायोंके भेदसे संख्यात असंख्यात और अनन्त प्रकार के हैं।
१४ इसी तरह अजीवादिमें भी निर्देश आदिकी योजना करनी चाहिए। यथा निर्देश-दश प्राणरहित अजीव होता है । अथवा नाम आदि रूप भी अजीव है। अजीवका स्वामी अजीव ही होता है अथवा भोक्ता होनेके कारण जीव भी। पुद्गलोंके अणुत्वका साधन भेद है और स्कन्धका साधन भेद और संघात। बाह्य साधन कालादि हैं । धर्म अधर्म काल और आकाशमें स्वाभाविक गतिहेतुता, स्थितिहेतुता, वर्तनाहेतुता और अवगाहनहेतुता ही साधन है। अथवा जीव और पुद्गल, क्योंकि इनके निमित्तसे गत्यादिहेतुताकी अभिव्यक्ति होती है। साधारणतया सभी द्रव्योंका अपना निज रूप ही अधिकरण है। आकाश बाह्य अधिकरण है। जलादिके लिए घट आदि अधिकरण हैं। द्रव्य दृष्टिसे स्थिति अनाद्यनन्त है तथा पर्यायदृष्टिसे एक समय आदि । द्रव्यदृष्टिसे धर्मादि तीन द्रव्य एक एक हैं। पर्यायार्थिक दृष्टि से अनन्त जीवपुद्गलोंकी गत्यादिमें निमित्त होनेसे अनेक हैं-संख्यात असंख्यात और अनन्त हैं। काल संख्यात और असंख्यात है। परपरिणमनमें निमित्त होता है अतः अनन्त भी है। पुद्गलद्रव्य सामान्यसे एक है। विशेष रूपसे संख्यात असंख्यात और अनन्त है।
आस्रव-मन, वचन और कायकी क्रिया रूप होता है, अथवा नामादि रूप आस्रव होता है। उपादान रूपसे आस्रवका स्वामी जीव है, निमित्तकी दृष्टिसे कर्मपुद्गल भी आस्रवका स्वामी होता है। अशुद्ध आत्मा साधन है अथवा निमित्त रूपसे कर्म भी। जीव ही आधार है क्योंकि कर्मपरिपाक जीवमें ही होता है । कर्मनिमित्तक शरीरादि भी उपचार से आधार हैं। वाचनिक और मानस आस्रवकी स्थिति जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। कायास्रवकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल या असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । वाचनिक और मानस आस्रव सत्य असत्य उभय और अनुभयके भेदसे चार प्रकारका है। कायास्रव औदारिक औदारिकमिश्र वैक्रियिक वैक्रियिकमिश्र आहारक आहारकमिश्र और कार्मणके भेदसे सात प्रकारका है। औदारिक और औदारिकमिश्र मनुष्य और तिर्यञ्चोंके होता है। वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र देव और नारकियोंके होता है। ऋद्धिप्राप्त संयतोंके आहारक और आहारकमिश्र होता है। विग्रहगतिप्राप्त जीव और समुद्घातगत केवलियोंके कार्मण कायास्रव होता है। आस्रव शुभ और अशुभके भेदसे भी दो प्रकारका है। हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील आदिमें प्रवृत्ति अशुभ कायास्रव है तथा निवृत्ति शुभकायास्रव । कठोर गाली चुगली आदि रूपसे परबाधक वचनोंकी प्रवृत्ति वाचनिक अशुभास्रव हैं और इनसे निवृत्ति वाचनिक शुभास्रव। मिथ्या श्रुति ईर्षा मात्सर्य षड्यन्त्र आदि रूपसे मानस प्रवृत्ति मानस अशुभास्रव है और इनसे निवृत्ति मानस शुभास्रव।
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