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हिन्दी-सार ६३ संसारके कारणभूत रागद्वेषादिकी निवृत्तिके लिए कृतसंकल्प विवेकी पुरुष का शरीर और वचनकी बाह्य क्रियाओंसे और आभ्यन्तर मानस क्रियासे विरक्त होकर स्वस्वरूपस्थिति प्राप्त करना सम्यक् चारित्र है। पूर्ण यथाख्यात चारित्र वीतरागी-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें तथा जीवन्मुक्त केवलीके होता है। उससे नीचे विविध प्रकारका तरतम चारित्र श्रावक और दसवें गुणस्थान तकके साधुओंको होता है।
६४ ज्ञान और दर्शन शब्द करणसाधन हैं अर्थात् आत्माकी उस शक्तिका नाम ज्ञान है जिससे पदार्थ जाने जाते हैं और उस शक्तिका नाम दर्शन है जिससे तत्त्वश्रद्धान होता है। चारित्र शब्द कर्मसाधन है अर्थात् जो आचरण किया जाता है वह चारित्र है।
५-६ प्रश्न-यदि जिसके द्वारा जाना जाय उस करणको ज्ञान कहते हैं तो जैसे 'कुल्हाड़ीसे लकड़ी काटते हैं' यहां कुल्हाड़ी और काटनेवाला दो जुदा पदार्थ हैं उसी तरह कर्ता आत्मा और करण-ज्ञान इन दोनोंको दो जुदा पदार्थ होना चाहिए ? उत्तर-नहीं, जैसे 'अग्नि उष्णतासे पदार्थको जलाती है' यहाँ अग्नि और उष्णता दो जुदा पदार्थ नहीं है फिर भी कर्ता और करणरूपसे भेदप्रयोग हो जाता है उसी तरह आत्मा और ज्ञानमें भी जुदापन न होनेपर भी कर्ता-करणरूपसे भेदव्यवहार हो जायगा । एवम्भूतनयकी दृष्टिसे ज्ञानक्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शनक्रियामें परिणत आत्मा दर्शन जैसे कि उष्णपर्यायमें परिणत आत्मा अग्नि है। यदि अग्निको उष्णस्वभाव नहीं माना जाय तो अग्निका स्वरूप ही क्या रह जाता है जिससे उसे अग्नि कहा जा सकेगा? उसी तरह यदि आत्माको ज्ञानदर्शनस्वरूप न माना जाय तो आत्माका भी क्या स्वरूप बचेगा जिससे उस ज्ञानदर्शनादिशन्य पदार्थको आत्मा कह सकें ? अतः अखण्ड द्रव्यदृष्टिसे आत्मा और ज्ञानमें कोई भेद नहीं है।
७-८ प्रश्न-जिस प्रकार नीले रंगके सम्बन्धसे साड़ी या कम्बल आदिमें 'नीला' यह प्रत्यय हो जाता है उसी तरह भिन्न ज्ञानगुणके सम्बन्धसे आत्मा ज्ञानवाला तथा भिन्न उष्णताके सम्बन्धसे अग्नि उष्ण बन जायगी ? उत्तर-नहीं, जैसे पुरुषसे संयुक्त होनेके पहिले डंडा एक स्वतन्त्र सिद्ध पदार्थ है और पुरुष भी दण्डसम्बन्धके पहिले अपने लक्षणोंसे स्वतन्त्रसिद्ध पदार्थ है उसी तरह क्या उष्णसम्बन्धके पहिले अग्नि स्वतः सिद्ध पदार्थ है. ? क्या ज्ञानके सम्बन्धके पहिले आत्मा स्वतःसिद्ध पदार्थ है ? दण्ड और पुरुषका तथा नीरंग और साड़ीका सम्बन्ध तो उचित है क्योंकि ये सब पृथक् सिद्ध पदार्थ हैं । परन्तु ज्ञानादिके सम्बन्धसे पहिले ज्ञानादिशून्य आत्मा और उष्णगुणके सम्बन्धके पहिले अनुष्ण अग्नि सिद्ध ही नहीं हैं। इसी तरह निराश्रय ज्ञान और उष्ण भी स्वतः सिद्ध पदार्थ नहीं हैं अतः इन्हें भिन्न मानकर इनके सम्बन्धकी कल्पना उचित नहीं है।
९ उष्णगुणके सम्बन्धसे पहिले अग्निमें 'उष्ण' यह ज्ञान होता है या नहीं ? यदि होता है, तो उष्णगुणके सम्बन्धकी आवश्यकता ही क्या है ? यदि नहीं, तो अनुष्णपदार्थ में उष्णगुणके सम्बन्धसे उष्ण व्यवहार हो ही नहीं सकता अन्यथा घटादिमें भी उष्ण व्यवहार होना चाहिए। यदि अग्नि उष्णगुणके सम्बन्धसे उष्ण है तो उष्णगुण किसके सम्बन्धसे उष्ण होगा? यदि उष्णगुणमें उष्णता लानेके लिए अन्य उष्णत्वका सम्बन्ध माना जाता है तो उस उष्णत्वमें उष्णता लानेके लिए अन्य उष्णत्व मानना होगा, उसमें भी उष्णता लानेके लिए तदन्य उष्णत्व इस तरह अनवस्था नामका दूषण होता है । यदि उष्णगुणमें स्वतः ही उष्णता है तो अग्निको ही स्वतः उष्ण मानने में क्या आपत्ति है ? फिर भिन्न पदार्थके सम्बन्ध
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