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सम्बन्धित अनेक प्राचीन अर्वाचीन उद्धरण तथा तद्विषयक चक्र, चित्रआदि का इस ग्रन्थ में संयोजन करके संपादन किया है ।
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प्रभावक आचार्यश्री विमलसागरजी महाराज, ज्ञानयोगी पूज्य उपाध्याय भरतसागरजी एवं पूज्य आर्यिका स्याद्वादमती माताजी ने अति उत्कृष्ट एवं दुर्लभ अनेक ग्रन्थों के प्रकाशन की योजना को साकार करके वह उत्कृष्ट कार्य कर रहे हैं उससे वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी दीर्घकाल तक कृतज्ञ रहेगी । इस कार्य के लिए समाज चिरकाल तक इस श्रमण संघ की आभारी रहेगी । इस निमित्त अनुवादक, प्रेरक, प्रकाशक एवं अन्य सत्साहित्य के प्रचार-प्रसार में सहयोगी सभी और पं० ब्र० धर्मचन्द्रजी तथा परमविदुषी ब्र० प्रभा पाटनी जी आदि साधुवाद के पात्र हैं। आशा है भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् आगे भी जैन साहित्य और संस्कृति की सेवा के महान् कार्य करते हुए इनके संरक्षण हेतु प्रयत्नशील रहेगी ।
१५ अगस्त, १९९३
अनेकान्त भवनम् वाराणसी
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