Book Title: Tattvanushasan
Author(s): Nagsen, Bharatsagar Maharaj
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 144
________________ तत्त्वानुशासन ११३ पदार्थ में नियन्त्रित किया जाता है, उसे हे देव ! आपने ध्यान कहा है । वह ध्यान न तो जड़तास्वरूप है और न तुच्छता रूप ही है । जीव का स्वरूप ज्ञानमय एवं उदासीन है । जो इसे देखता जानता है, उस अध्यात्मवेदी को स्पष्ट रूप से तत्त्व प्रतिभासित हो जाता है । ध्यानस्तव के इन दो श्लोकों पर तत्त्वानुशासन के प्रकृत श्लोक का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । स्वसंवेदन का स्वरूप वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत्स्वस्य स्वेन योगिनः । प्राहुरात्मनोऽनुभवं तत्स्वसंवेदनं दृशम् ॥ १६१ ॥ अर्थ -- योगियों को अपनी आत्मा का अपने द्वारा जो वेद्यत्व अर्थात् ज्ञान विषय होना और वेदकत्व अर्थात् ज्ञाता होना है, उसे स्वसंवेदन कहते हैं । सम्यग्दर्शन रूप आत्मानुभव भी स्वसंवेदन कहलाता है ।। १६१ ॥ विशेष - अनुभव चिन्तामणि रतन अनुभव है रसकूप । अनुभव मारग मोक्ष का अनुभव मोक्षस्वरूप ॥ जिस समय आत्मानुभव प्राप्त होता है उस समय जोव की एक विचित्र दशा हो जाती है। छह रस का आनन्द सूख जाता है, पंचेन्द्रिय विषय अच्छे नहीं लगते हैं। गोष्ठी, कथा, कुतूहल आदि में मन नहीं रमता है, मन रूपी पंछी मर जाता है, ज्ञानानन्द का अमृत बरसता है, जो आत्मघट में नहीं समाता अर्थात् अतीन्द्रिय, अपूर्व आनन्द का रसास्वादन आता है जैसा कि कहा है आतम अनुभव आवे जब निज आतम अनुभव आवे, और कछु न सुहावे जब निज आतम अनुभव आवे । रस नीरस हो जाय ततक्षण अक्षविषय नहीं भावे ॥ १ ॥ गोष्ठी कथा कुतूहल सब विघटे, पुद्गल प्रीति नशावे ॥ २ ॥ राग-द्वेष युग चपल पक्ष युत, मन पंछो मर जावे || ३ || ज्ञानानन्द सुधारस उमगे घट अन्तर न समावे ॥ ४ ॥ जब निज आतम स्वसंवेदन की ज्ञप्तिरूपता स्वपरज्ञप्तिरूपत्वान्न तस्य कारणान्तरम् । ततश्चिन्तां परित्यज्य स्वसंवित्यैव वेद्यताम् ॥ १६२ ॥ ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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