________________
तत्त्वानुशासन
वारुणी धारणा
मारुती धारणा के अनन्तर उस ध्याता को चाहिये कि वह आकाश में गर्जना करते हुए घनघोर बादलों का, खूब गहरे रंग वाले विशाल इन्द्रधनुष का, बिजली का, जल वर्षा का जल के प्रवाह के पूर से सूर्य के बह जाने का चिन्तन करे, अर्थात् वह समझे कि जोर से वर्षा हो रही है और बिजली चमक रही है, पानी के जोरदार प्रवाह से सूर्य भी बहा जा रहा है घनघोर घटाएँ छाई हुई हैं। इसके बाद बाधाओं से रहित अर्धचन्द्रसम गोल मानो कि श्रेष्ठ चन्द्रमण्डल से वर्षा हो रही हो ऐसा सम्पूर्ण क्रियाओं व अभिलाषाओं की पूर्ति कर देने वाले वरुणपुर ( मण्डल ) का चिन्तन करें । उस दिव्य ध्यान से उत्पन्न हुए जल से उत्पन्न हुई राख को धोता है ऐसा चिन्तन करे । पश्चात् अपनो मनोहर कान्ति से जिसने दशों दिशाओं को निर्मल कर दिया, जो दर्शन, ज्ञान, वीर्य व मोक्ष रूप है, जिसमें गोलाई, लम्बाई आदि विकार नहीं पाये जाते हैं जिसका निवास स्थान रूप शरीर अत्यन्त निर्मल है ऐसो सत् चित् आनन्द स्वरूप आत्मा का हृदय में ध्यान करे ।
१२३
तत्त्वरूपवती धारणा
पश्चात् ध्यानी पुरुष अपने को सर्वज्ञ के समान सप्तधातु रहित, पूर्णचन्द्रमा के समान प्रभावाला, सिंहासन पर विराजमान, दिव्य अतिशयों से 'युक्त, कल्याणकों की महिमा सहित, देवों से पूजित और कर्मरूपी कलंक से रहित चिन्तन करे । पश्चात् अपने शरीर में स्थित आत्मा को अष्टकर्मों से रहित, अत्यन्त निर्मल पुरुषाकार चिन्तन करे ।
एक शंका
Jain Education International
नन्वनर्हन्तमात्मानमर्हन्तं ध्यायतां सताम् । अतस्मिस्तद्ग्रहो भ्रान्तिर्भवतां भवतीति चेत् ॥ १८८ ॥ अर्थ - यहाँ शङ्का है कि आत्मा अर्हन्त नहीं है । आत्मा को अर्हन्त मानकर ध्यान करने वाले आप सज्जनों का ध्यान जो जैसा नहीं है उसमें वैसा ग्रहण करने वाला होने से भ्रान्ति होगा || १८८ ||
शंका का समाधान
तन्न चोद्यं यतोऽस्माभिर्भावार्हन्नयमर्पितः ।
स चाद्ध्याननिष्ठात्मा ततस्तत्रैव तद्ग्रहः ॥ १८९ ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org