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तत्वानुशासन
समाधान
इति चेन्मन्यसे मोहात्तन्न श्रेयो मतं यतः । वेत्सि स्वरूपं सुखदुःखयोः ॥ २४१ ॥
नाद्यापि वत्स त्वं
अर्थ - मोहनीय कर्म के उदय से यदि तुम ऐसा मानते हो तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि हे वत्स अब भी तुम सुख एवं दुःख का स्वरूप नहीं जानते हो || २४१ ॥
आत्मायत्तं घातिकर्मक्षयोद्भूतं
अर्थ - जो आत्मा के आधीन है, बाधाओं से रहित है, अतोन्द्रिय है, कभी नष्ट न होने वाला है तथा चार घाति कर्मों के नाश से उत्पन्न हुआ है, उसे मोक्षसुख कहते हैं || २४२ ||
निराबाधमतीन्द्रियमनश्वरम् ।
१३९.
यत्तन्मोक्षसुखं विदुः ॥ २४२ ॥
विशेष --- इन्द्रियजनित सुख प्रथम तो सातावेदनीय आदि पुण्य कर्मों के उदय से प्राप्त होता है, अतः स्वाधीन नहीं है । दूसरे, पुण्य कर्मों के उदय से प्राप्त होने पर भी तभी तक रहता है, जब तक पुण्य का उदय है । बाद में वह नियम से नष्ट हो जाता है तथा उसकी उत्पत्ति दुःखों में पर्यवसित है । अतः ऐसा सुख अश्रेय है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा भी गया है
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कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबोजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥ १२ ॥
अतः जहाँ पर दुःख का लेश भी न हो, उसे ही यथार्थ सुख समझना चाहिये | ऐसा सुख प्राणी को कर्मबन्धन से रहित हो जाने पर मोक्ष में ही प्राप्त हो सकता है । क्योंकि मोक्षसुख स्वाधीन, निर्बाध, अतीन्द्रिय एवं अविनाशी होने से इन्द्रिय सुख की तरह दुःखों से व्यवहित नहीं है ।
स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्रनासुखम् ।
तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गति यत्र नागति || ४६ || आ० शा०
धर्म वह है जिसके होने पर अधर्म, ज्ञान वह है जिसके होने पर अज्ञान न रहे, गति वह है जिसके होने पर आगमन न हो तथा सुख वह है जिसके होने पर दुःख न हो ।.
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