Book Title: Tattvanushasan
Author(s): Nagsen, Bharatsagar Maharaj
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 175
________________ :१४० तत्त्वानुशासन यत्तु सांसारिक सौख्यं रागात्मकमशाश्वतम् । स्वपरद्रव्यसंभूतं तृष्णासन्तापकारणम ॥२४३॥ मोहद्रोहमदक्रोधमायालोभनिबन्धनम् । दुःखकारणबन्धस्य हेतुत्वाद्दुःखमेव तत् ॥२४४॥ अर्थ-और सांसारिक सुख रागात्मक है, विनाशीक है, आत्मा एवं परद्रव्यों से उत्पन्न होने वाला है, तुष्णा एवं सन्ताप का कारण है, मोह, द्रोह, मद, क्रोध, माया एवं लोभ का कारण है, वह दुःख के कारणभूत बन्ध का हेतु होने से वास्तव में दुःख ही है ॥२४३-२४४।। विशेष-सभी प्राणी सुखाभिलाषो हैं, कोई भी दुःख को नहीं चाहता है । अज्ञानी प्राणी जिसे सुख समझता है, वह सुख नहीं है सुखाभास है। उस सुख के अनन्तर पूनः अनिवार्य रूप से दुःख होता है। क्योंकि पुण्य कर्म के क्षीण हो जाने पर दुःख के हेतुभूत पाप का उदय अवश्यंभावी है। इसके अतिरिक्त वह आसक्ति और तृष्णा का बढ़ाने वाला होने से पापास्रव का कारण भी है । अतः ऐसे दुःख में पर्यवसान वाले सुख को वास्तव में दुःख ही समझना चाहिये । यही इन दोनों श्लोकों का भावार्थ है। तन्मोहस्यैव माहात्म्यं विषयेभ्योऽपि यत्सुखम् । यत्पटोलमपि स्वादु श्लेष्मणस्तद् विजृम्भितम् ॥२४५॥ अर्थ-विषय भोगों से भी जो सुख मिलता है, वह मोहनीय कर्म का ही माहात्म्य है । जो पटोल ( कड़वा करेला ) भी स्वादिष्ट लगता है वह श्लेष्मा का ही प्रभाव है ॥२४५॥ यदत्र चक्रिणां सौख्यं यच्च स्वर्गे दिवौकसाम् । कलयापि न तत्तुल्यं सुखस्य परमात्मनाम् ॥२४६॥ अर्थ-इस जगत् में चक्रवतियों का जो सुख है और स्वर्ग में देवताओं का जो सुख है, वह परमात्माओं के सुख की एक कला के समान भी नहीं है।। २४६ ॥ मोक्ष हो उत्तम पुरुषार्थ अतएवोत्तमो मोक्षः पुरुषार्थेषु पठ्यते । स च स्याद्वादिनामेव नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥२४७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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