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तत्त्वानुशासन अर्थ क्रिया हो, अर्थ क्रिया वहीं बन सकती है जहां क्रम और अक्रम (योगपद्य ) हों और क्रम अक्रम वहीं बन सकते हैं जहाँ अनेकान्तामकत्व हो ॥२४९ ॥
मूलव्याप्तुनिवृत्तौ तु क्रमाक्रम निवृत्तितः । क्रियाकारकयोभ्रंशान्न स्यादेतच्चतुष्टयम् ॥२५०॥
अर्थ-लेकिन सर्वथा एकान्तवादियों के यहाँ जब मूल, व्यापक रूप अनेकान्तात्मकत्व ही नहीं माना गया तब क्रम और अक्रम की भी निवृत्ति हो जायगी। क्रम और अक्रम की निवृत्ति हो जाने से क्रिया व कारक भी नहीं बन सकेंगे और उनके न बनने से इन (बन्ध, बन्ध के कारण, मोक्ष, मोक्ष के कारण ) चारों की व्यवस्था नहीं बन सकती है ।। २५० ॥
ततो व्याप्त्या समस्तस्य प्रसिद्धश्च प्रमाणतः ।
चतुष्टयसदिच्छद्भिरनेकान्तोऽवगम्यताम् ॥२५१॥ अर्थ-इसलिये इन चारों की सत्ता मानने वाले लोगों को सर्वत्र व्याप्त होने के कारण और प्रमाण से सिद्ध अनेकान्त समझना चाहिये । २५१ ॥
सारचतुष्टयेऽप्यस्मिन्मोक्षः सद्ध्यानपूर्वकः । इति मत्वा मया किञ्चिद् ध्यानमेव प्रपञ्चितम् ॥२५२॥
अर्थ-इन चार में भी सच्चे ध्यानपूर्वक होने वाला मोक्ष सारभूत है। ऐसा मानकर मैंने कुछ ध्यान का ही विस्तार किया है ।। २५२ ॥
ग्रंथकार की लघुता यद्यप्यव्यन्तगम्भीरमभूमिर्मादृशामिदम् । प्रातिषि तथाप्यत्र ध्यानभक्तिप्रचोदितः ॥२५३॥
अर्थ-यद्यपि ध्यान अत्यन्त गम्भीर है और यह हम जैसों के वर्णनीय नहीं है तथापि ध्यान की भक्ति से प्रेरित मैंने इसमें प्रवृत्ति की है ॥२५३।।
ग्रन्थकार को क्षमा याचना यदत्र स्खलितं किञ्चिच्छामस्थ्यादर्थशब्दयोः । तन्मे भक्तिप्रधानस्य क्षमताम् श्रुतदेवता ॥२५४॥ अर्थ-छद्मस्थ ( अल्पज्ञानी ) होने के कारण इसमें जो कुछ शब्द
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