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तत्त्वानुशासन
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और अर्थ की त्रुटि हुई हो, भक्ति हो है प्रधान जिसे ऐसे मेरो उस त्रुटि को श्रुतदेवता क्षमा करें ।। २५४ ॥
ग्रन्थकार की मंगलकामना वस्तुयाथात्म्यविज्ञानश्रद्धानध्यानसम्पदः । भवन्तु भव्यसत्त्वानां स्वस्वरूपोपलब्धये ॥२५५॥ अर्थ-भव्य प्राणियों को अपने आत्म स्वरूप की प्राप्ति के लिए वस्तु का यथार्थ ज्ञान, यथार्थ श्रद्धान एवं ध्यान रूपी सम्पत्तियाँ प्राप्त होवें ।। २५५॥
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