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तत्त्वानुशासन
१३७ मुक्तात्मा स्वस्वभाव में स्थित तिष्ठत्येव स्वरूपेण क्षीणे कर्मणि पौरुषः । यथा मणिः स्वहेतुभ्यः क्षोणे सांसर्गिके मले ॥२३६॥ अर्थ-जिस प्रकार संसर्गजन्य मैल के नष्ट हो जाने पर मणि अपने हेतुओं से स्थित रहता है उसी प्रकार कर्मों के नष्ट हो जाने पर जीव या आत्मा स्वभाव से ही स्थित रहता है ॥२३६।।
विशेष-जिस प्रकार सुवर्णपाषाण में स्वर्णपर्याय प्राप्त करने की योग्यता है परन्तु किट्ट-कालिमादि बाह्य पदार्थों का आवरण होने से वह स्वर्ण पर्याय प्रकट नहीं हो पाती; जब अग्निसंतापन आदि बाह्य कारणों की योजना से बाह्य पदार्थों को दूर कर दिया जाता है तब स्वर्ण पर्याय प्रकट हो जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक भव्य प्राणी में सिद्धि-मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता है परन्तु ज्ञानावरणादि पौद्गलिक कर्मों और उनके निमित्त से होने वाले विकारी दोषों के रहते हए सिद्धि मुक्ति पर्याय प्रकट नहीं हो पाती; जब तपश्चरणादि कारणों की योजना से वे कर्म और उनसे उत्पन्न होने वाले विकारी भाव नष्ट हो जाते हैं तब आत्मा में मुक्ति पर्याय प्रकट हो जाती है। जिन जीवों ने ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियों का क्षय कर आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, वे सिद्ध कहलाते हैं।
न मुह्यति न संशेते न स्वार्थानध्यवस्यति । न रज्यते न च द्वेष्टि किन्तु स्वस्थः प्रतिक्षणम् ॥२३७॥ अर्थ-( वह मुक्त आत्मा ) न मोहित होता है, न सोता है, न स्वार्थों की ओर जाता है, न राग करता है और न द्वेष करता है अपितु प्रतिक्षण अपने में स्थित रहता है ।।२३७।।
त्रिकाल त्रिलोक के ज्ञाता होकर भी उदासीन त्रिकालविषयं ज्ञेयमात्मानं च यथास्थितम् । जानन् पश्यंश्च निःशेषमुदास्ते स सदा प्रभुः ॥२३८॥ अर्थ-तब वह समर्थ आत्मा तीनों काल के ज्ञेय-जानने योग्य पदार्थों को और अपने को अपने-अपने स्वरूप में स्थित जानता और देखता हुआ पूर्णरूप से उदासीन रहता है ।। २३८ ।।
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