Book Title: Tattvanushasan
Author(s): Nagsen, Bharatsagar Maharaj
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 170
________________ १३५ तत्त्वानुशासन मुक्त जीवों का अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार ततः सोऽनन्तरत्यक्तस्वशरीर प्रमाणतः । किञ्चिदूनस्तदाकारस्तत्रास्ते स्वगुणात्मकः ॥२३३॥ अर्थ-इसलिये वह ( मुक्त जीव ) वहाँ अपने तुरन्त त्यागे गये शरीर के प्रमाण से कुछ कम, तदाकार तथा आत्मा के गुणों से परिपूर्ण रहता है ॥२३३॥ विशेष-तिलोयपण्णत्ती ९/१० में आचार्य यतिवृषभ ने कहा है कि अन्तिम भव में जिसका जैसा आकार, दीर्घता एवं बाहुल्य होता है, उसके तृतीय भाग विहीन सब सिद्धों की अवगाहना होती है । यही बात सिद्धान्तसारदीपक १६/८ में भी कही गई है। सिद्धों के आत्मप्रदेशों का फैलाव प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा अपनी-अपनी अन्तिम शरीर अवगाहना से कुछ कम होता है । भूत दृष्टि से उसे शरीर प्रमाण तदाकार माना गया है। सभी सिद्ध सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, सक्षमत्व, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध इन आठ गुणों से पूर्ण होते हैं । श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ने कहा है 'णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता ॥' -बृहद्रव्यसंग्रह, १/१४ अर्थात् सिद्ध भगवान् ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों के धारक हैं और अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं । लोकाग्र में स्थित, नित्य एवं उत्पाद-व्यय से संयुक्त हैं । मुक्तावस्था में जीव का अभाव नहीं स्वरूपावस्थितिः पुंसस्तदा प्रक्षीणकर्मणः । नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ॥२३४॥ अर्थ-तब विनष्ट हो चुके कर्मों वाले पुरुष की स्वरूप या स्वाभाविक अवस्था होती है। न तो अभाव होता है और न ही अचेतनपना । चैतन्य अनर्थक ( व्यर्थ ) नहीं होता है ॥२३४॥ विशेष-भारतीय दर्शनों में आत्मा की मुक्तावस्था के सम्बन्ध को लेकर विभिन्न विवाद हैं यथा-किसी का कहना है मुक्ति में आत्मा का उच्छेद-नाश हो जाता है, बुद्धि आदि गणों का नाश होना मुक्ति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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