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तत्त्वानुशासन
सामर्थ्य तो उपादान कारण है और धर्मद्रव्य निमित्त कारण है। जहाँ तक मुक्त जीवों को ऊर्ध्वगमन करने में यह दोनों प्रकार की कारण सामग्री प्राप्त होती है, वहीं तक ऊपर जाना सम्भव है । धर्मद्रव्य लोक के अन्त तक हो पाया जाता है। अतः ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने पर भी जीव उसके आगे गमन नहीं कर सकता है ।
मुक्त होने पर संकोच विस्तार नहीं पुसः संहारविस्तारौ संसारे कर्मनिमितौ । मुक्तौ तु तस्य तौ न स्तः क्षयात्तद्धेतुकर्मणाम् ॥२३२॥
अर्थ संसार में जीव का कर्मों के उदय से संकोच और विस्तार होता है। मोक्ष में जीव के उस (संकोच-विस्तार) के कारणों का नाश हो जाने से वे दोनों (संकोच और विस्तार) नहीं होते हैं ।। २३२ ।।
विशेष-जैनदर्शन की मान्यता है कि जीव का आकार शरीर के आकार होता है। मुक्त जीवों का शरीर नहीं रहता है तो फिर उनका जीवात्मा लोकाकाश में फैल जाना चाहिये क्योंकि उसका स्वाभाविक परिणाम तो लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर बतलाया गया है ? इस आशंका का समाधान ही इस कारिका द्वारा किया गया है। आत्मा के प्रदेशों में संकोच-विस्तार नामकर्म के कारण होता था। क्योंकि नामकर्म के कारण जैसा शरीर मिलता था, उसी के अनुसार आत्मप्रदेशों में संकोच और विस्तार होता था। मुक्त होने पर नामकर्म का अभाव हो जाने के कारण संकोच और विस्तार का अभाव हो जाता है।
बृहद्रव्यसंग्रह के टीकाकार श्री ब्रह्मदेव ने मुक्तात्मा के संकोचविस्तार न होने में अनेक उदाहरण गाथा १/१४ की वृत्ति में दिये हैं । वे लिखते हैं कि जैसे किसी मनुष्य की मुट्ठी के भीतर चार हाथ लम्बा भिंचा हुआ वस्त्र है । मुट्ठी खोल देने पर भी पुरुष के अलग हो जाने पर भी वह वस्त्र संकोच विस्तार नहीं करता है, अपितु पुरुष ने जैसा छोड़ा था, वैसा ही रहता है। अथवा गोली मिट्टी का बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता है, किन्तु जब वह सूख जाता है तब जल का अभाव होने से संकोच-विस्तार को प्राप्त नहीं होता है । इसी प्रकार मुक्त जीव भी पुरुष के स्थानभूत अथवा जल के स्थानभूत शरीर के अभाव में संकोच-विस्तार नहीं करता है।
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