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तत्त्वानुशासन
अर्थ - अर्हन्त और सिद्ध के रूप में ध्याया गया यह आत्मा चरम शरीरो को धारण करने वाले को मुक्ति का कारण होता है और वही ध्यान उस ध्यान से प्राप्त पुण्य वाले अचरमशरीरो को भुक्ति (भोग) का कारण होता है ॥ १९७ ॥
ज्ञानं
श्रीरायुरारोग्यं तुष्टिपुष्टिर्वपुर्धृतिः ।
यत्प्रशस्तमिहान्यच्च तत्तद्ध्यातुः प्रजायते ॥ १९८ ॥
अर्थ - अर्हन्त सिद्ध का ध्यान करने वाले को ज्ञान, सम्पत्ति, आयु, नीरोगता, तुष्टि, पुष्टि, शरीर, धृति तथा जो कुछ भी अन्य इस संसार में प्रशंसनीय वस्तुएँ हैं वह सब प्राप्त हो जाती हैं ॥ १९८ ॥
तद्ध्यानाविष्टमालोक्य प्रकम्पन्ते महाग्रहाः ।
नश्यन्ति भूतशाकिन्यः क्रूराः शाम्यन्ति च क्षणात् ॥ १९९॥
अर्थ - अर्हन्त सिद्ध के ध्यान में तल्लीन उस योगी को देखकर महाग्रह भी कम्पायमान होने लगते हैं, भूत एवं शाकिनी नष्ट हो जाते हैं तथा क्रूर स्वभाव वाले भी क्षणभर में शान्त हो जाते हैं ॥ १९९ ॥
यो
यत्कर्मप्रभुर्देवस्तद्ध्यानाविष्टमात्मनः ।
ध्याता तदात्मको भूत्वा साधयत्यात्मवाञ्छितम् ॥ २०० ॥
पार्श्वनाथोऽभवन्मन्त्री
सफलीकृतविग्रहः ।
महामुद्रां
महामन्त्रं
महामण्डलमाश्रितः ॥ २०१ ॥
अर्थ - जो जिस कार्य में समर्थ देवता है, ध्यान करने वाला योगी तदात्मक अर्थात् वैसा ही होकर आत्मा के ध्यान में तल्लीन होकर अपने अभीष्ट को सिद्ध कर लेता है, महामुद्रा, आसन, महामन्त्र तथा महामण्डल का आश्रय लेने वाला मन्त्री मरुभूति अपने शरीर को सफल करके पार्श्व - नाथ बन गया था । २००-२०१ ।।
तैजसीप्रभृतीबिभ्रद् धारणाश्च निग्रहादीनुदग्राणां ग्रहाणां कुरुते
यथोचितम् । द्रुतम् ॥ २०२ ॥
अर्थ - यथायोग्य तैजसी आदि धारणाओं को धारण करता हुआ योगी उद्रन (क्रूर) ग्रहों का शीघ्र ही नियन्त्रण आदि कर लेता है ॥ २०२ ॥
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