Book Title: Tattvanushasan
Author(s): Nagsen, Bharatsagar Maharaj
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 165
________________ तत्त्वानुशासन को नरकगति का, धर्म्यध्यान को देवगति का तथा शुक्लध्यान को मोक्ष का कारण माना गया है। कहा भी गया है 'अट्टेण तिरिक्खगई रुद्दज्झाणेण गम्मती नरयं । धम्मेण देवलोयं सिद्धिगई सूक्कझाणेण ।' (द्रष्टव्य ध्यानशतक, ५ को हरिभद्रसूरिविरचित वृत्ति) आर्तध्यान-ऋतं दुःखम्, “अर्दनयतिर्वा, तत्र भवमातम्"-पोड़ा पहुँचाना अर्थ है जिसका वह है आर्तध्यान। रौद्रध्यान-"रुद्रः क्र राशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम्"-रुद्र का अर्थ है "क्र र आशय" । अर्थात् क्र र आशय में होने वाला ध्यान रौद्र है धर्मादनपेतं धर्म्यम्-जो धर्म से युक्त है वह धर्म्यध्यान है तथा "शुचिगुणयोगाच्छुक्लम्" जिसमें शुचि गुण का योग है वह शुक्लध्यान है। ( स० सि० २८।९।८७४ ) यह चार प्रकार का ध्यान दो भागों में विभक्त है प्रशस्त और अप्रशस्त। जो पापास्रव का कारण है वह अप्रशस्त है और जो कर्मों के निर्दहन करने की सामर्थ्य से युक्त है वह प्रशस्त है। तत्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु । शुभाशुभमलापायाद् विशुद्धं शुक्लमभ्यधुः ॥२२१॥ अर्थ-अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में तत्त्वज्ञान रूप, उदासीन और शुभ एवं अशुभ मलों के दूर हट जाने से विशुद्ध शुक्लध्यान को धारण करना चाहिये ॥२२१।। विशेष-'शुचं क्लमयतीति शुक्लम्' इस निरुक्ति के अनुसार जो ध्यान शोकादिक को दूर करने वाला है, वह शुक्लध्यान कहलाता है। आदिपुराण में शुक्लध्यान के दो भेद किये गये हैं-शुक्ल और परम शुक्ल । छद्मस्थों के शुक्ल और केवलियों के परम शुक्ल ध्यान कहा गया है ( आदिपुराण २१।१६७ ) । परमशुक्ल से समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान समझना चाहिये । क्योंकि अन्यत्र किये गये शुक्लध्यान के चार भेदों में पृथक्त्व वितर्क सविचारो, एकत्ववितर्क अविवारी एवं सूक्ष्मक्रिया अनिवर्ती ये तीन परम शुक्ल नहीं कहे जा सकते हैं । शुचिगुणयोगाच्शुक्लं कषायरजसः क्षयादुपशमाद्वा । माणिक्यशिखावदिदं सुनिर्मलं निष्प्रकम्पं च ॥२२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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