Book Title: Tattvanushasan
Author(s): Nagsen, Bharatsagar Maharaj
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 163
________________ १२८ तत्त्वानुशासन चिकीर्षति । किमत्र बहुनोक्तेन यद्यत्कर्म यद्यत्कर्म तदेवतामयो भूत्वा तत्तन्निर्वर्तयत्ययम् ॥ २०९ ॥ अर्थ - इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ है ? वह जिस-जिस कर्म को करना चाहता है, उस कर्म के देवता रूप होकर उस उस कर्म को पूर्ण कर लेता है || २०९ ॥ शान्ते कर्मणि शान्तात्मा क्रूरे क्रू रो भवन्नयम् । शान्तक्रूराणि कर्माणि साधयत्येव साधकः ॥ २१० ॥ अर्थ - शान्त कर्म में शान्त स्वभाव वाला और क्रूर कर्म में क्रूर स्वभाव वाला होता हुआ यह साधक योगो शान्त और क्रूर कर्मों को सिद्ध कर ही लेता है ॥२१०॥ आकर्षणं वशीकारः स्तम्भनं मोहनं द्रुतिः । शान्तिविद्वेषोच्चाट निग्रहाः ॥ २११ ॥ निर्विषीकरणं एवमादीनि कार्याणि दृश्यन्ते ध्यानवर्तिनाम् । समरसीभावसफलत्वान्न विभ्रमः ॥ २१२ ॥ ततः अर्थ - आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, दुति, निर्विषीकरण, शान्ति, विद्वेष, उच्चाटन, निग्रह आदि इस प्रकार के कार्य ध्यान करने वाले योगियों के देखे जाते हैं, इसलिये समरसीभाव ( तादात्म्य ) के सफल हो जाने के कारण भ्रान्ति नहीं रहती है ॥२११-२१२॥ मुद्रामन्त्रमण्डलधारणाः ॥२१३॥ यत्पुनः पूरणं कुम्भो रेचनं दहनं प्लवः । सकलीकरणं कर्माधिष्ठातृदेवानां संस्थानं लिङ्गमासनम् । प्रमाणं वाहनं वीर्यं जातिर्नामधुनिर्दिशा ॥ २१४॥ भुजवक्त्रनेत्र संख्या क्रू रस्तथेतरः । वर्णस्पर्शस्वरोऽवस्था वस्त्रं भूषणमायुधम् ॥ २१५ ॥ एवमादि यदन्यच्च शान्त राय कर्मणे । मन्त्रवादादिषु प्रोक्तं तद्ध्यानस्य परिच्छदः ॥ २१६ ॥ भावः अर्थ - पूरण, कुम्भक, रेचन, दहन, प्लवन, सकलीकरण, मुद्रा, मन्त्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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