Book Title: Tattvanushasan
Author(s): Nagsen, Bharatsagar Maharaj
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 162
________________ तत्त्वानुशासन स्वयमाखण्डलो भूत्वा महामण्डलमध्यगः । किरीटकुण्डली वज्री पीतम् (भू) षाम्बरादिकः ॥ २०३ ॥ कुम्भकी स्तम्भमुद्राद्यास्तम्भनं मन्त्रमुच्चरन् । स्तम्भकार्याणि सर्वाणि करोत्येकाग्रमानसः ॥२०४॥ अर्थ-महामण्डल के मध्य में विद्यमान स्वयं इन्द्र रूप होकर तथा किरीट एवं कुण्डल को धारण करने वाला, वज्र को धारण करने वाला (?) होकर एकाग्र चित्त वाला वह योगी कुम्भक वायु को धारण कर स्तम्भमुद्रा आदि के द्वारा स्तम्भन मन्त्र का उच्चारण करता हुआ सभी स्तम्भन रूप कार्यों को कर लेता है ।। २०३ २०४ ॥ १२७ स स्वयं गरुडोभूय क्ष्वेडं क्षपयति क्षणात् । कन्दर्पश्च स्वयं भूत्वा जगन्नयति वश्यताम् ॥२०५॥ अर्थ- वह ध्यान करने वाला योगी ) स्वयं गरुड़ होकर क्षण भर में विष को नष्ट कर देता है और स्वयं कामदेव होकर संसार को वश में कर लेता है || २०५ ।। एवं वैश्वानरो भूयं ज्वलज्ज्वालाशताकुलः । शीतज्वरं हरत्याशु व्याप्य ज्वालाभिरातुरम् ॥ २०६ ॥ अर्थ - इसी प्रकार जलती हुईं सैकड़ों ज्वालाओं से व्याप्त अग्नि होकर अपनी ज्वालाओं से रोगी व्यक्ति को व्याप्त कर शीघ्र ही शीतज्वर को दूर कर देता है || २०६ || स्वयं सुधामयो भूत्वा अथैतमात्मसात्कृत्य वर्षन्नमृतमातुरे । दाहज्वरमपास्यति ॥२०७॥ अर्थ- स्वयं अमृतमय होकर रोगी व्यक्ति के ऊपर अमृत की वर्षा करता हुआ वह योगी उसे आत्मसात् ( अमृतमय ) करके दाहज्वर को दूर कर देता है || २०७|| क्षीरोदधिमयो भूत्वा प्लावयन्नखिलं जगत् । शान्तिकं पौष्टिक योगी विदधाति शरीरिणाम् ॥ २०८ ॥ Jain Education International अर्थ - क्षीरसागर मय होकर सम्पूर्ण संसार को आप्लावित करता हुआ वह योगी शरीरधारियों के शान्ति कर्म एवं पौष्टिक कर्म को करता है ॥२०८|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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