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तत्त्वानुशासन
परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अर्हदुध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात्स्वयं तस्मात् ॥ १९०॥ अर्थ - ऐसी शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि हम लोगों ने उसे नयदृष्टि से भाव अर्हन्त माना है और वह ध्याता अर्हन्त के ध्यान में तल्लीन आत्मा वाला है । इसलिये उस ( अर्हन्त ) में ही उस ( आत्मा ) का ग्रहण होता है । आत्मा जिस भाव से परिणमित होता है, वह उसी भाव से तन्मय हो जाता है । इसलिये अर्हन्त के ध्यान में तल्लीन आत्मा स्वयं भाव अर्हन्त हो जाता है ।। १८९-१९०||
येन भावेन यद्रूपं
ध्यायत्यात्मानमात्मवित् ।
तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ।। १९१ ॥
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अर्थ - जैसे उपाधि से युक्त स्फटिक मणि तन्मयता को प्राप्त हो जाता है वैसे आत्मा को जानने वाला ध्याता आत्मा का जिस भाव से ध्यान करता है वही उसी रूप ( तन्मय ) हो जाता है || ४९१ ॥
विशेष - भावार्थ यह है कि जैसे स्फटिक मणि के पीछे जिस रंग का पदार्थ रखा रहता है, स्फटिक मणि उसी रंग की मालूम पड़ने लगती है । उसी प्रकार आत्मा को जानने वाला योगी अपनी आत्मा का जिस रूप में ध्यान करता है, वह उसी रूप हो जाती है । योगी जब अपनी आत्मा का ध्यान अर्हन्त भगवान् मान कर करेगा तो उसे अन्य अवस्था में विद्यमान होने पर भी अपनी आत्मा अर्हन्त भगवान् रूप ही प्रतीत होगा । ध्यान का ऐसा ही माहात्म्य है ।
दूसरी तरह से समाधान
अथवा भाविनो भूताः स्वपर्यायास्तदात्मकाः । आसते द्रव्यरूपेण सर्वद्रव्येषु
सर्वदा ॥ १९२॥ अर्थ - अथवा द्रव्यनिक्षेप से सब द्रव्यों में भावी और भूतकालिक अपनी पर्यायें सदा तदात्मक ही प्रतीत होती हैं ॥१९२॥ |
विशेष - भाव यह है कि द्रव्यनिक्षेप के अनुसार वर्तमानकालीन आत्मामें भविष्यत्कालीन अर्हन्त की पर्याय प्रतिभासित होने लगती है, क्योंकि योगी आत्मा की आगे होने वाली अर्हन्त पर्याय का ध्यान करता है ।।१९२।।
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