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तत्त्वानुशासन
अर्थात् समाधि में स्थित योगी को यदि आत्मा ज्ञानस्वरूप प्रतिभासित नहीं होती है तो मोह स्वभाव होने के कारण उसके ध्यान को यथार्थ ध्यान नहीं कहा जा सकता है। ध्यानस्तव के इस कथन का आधार तत्त्वानुशासन का प्रकृत श्लोक ही है । इसमें शब्दगत एवं अर्थगत साम्य देखा जा सकता है |
तदेवानुभवंश्चायमेकाग्रचं परमृच्छति । तथात्माधीनमानन्दमेति वाचामगोचरम् ॥ १७० ॥
अर्थ-उस (ज्ञानात्मा) का अनुभव करता हुआ यह उत्कृष्ट एकाग्रता को प्राप्त होता है और वाणी के द्वारा अकथनीय आत्मा के आधीन रहने वाले आनन्द को प्राप्त होता है ।। १७० ॥
यथा निर्वातदेशस्थः प्रदीपो न प्रकम्पते ।
तथा स्वरूपनिष्ठोऽयं योगी नैकाग्रयमुज्झति ॥ १७१ ॥ रहित स्थान में स्थित दीपक कम्पित स्वरूप में लीन यह योगी एकाग्रता को
अर्थ - जिस प्रकार वायु से नहीं होता है, उसी प्रकार अपने नहीं छोड़ता है || १७१ ।।
विशेष - ध्याता को चाहिये कि निश्चयनय का आश्रय लेकर आत्मा को ध्यावे तो उसे आत्मा शुद्ध दिखलाई पड़ेगी । उपयोग अन्य सभी आत्माओं से हटाकर अपनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव में एकाग्र करे । क्योंकि शुद्धोपयोग की अवस्था में ही स्वानुभव रहता है और वही आत्मा का ध्यान है । निश्चलता की स्थिति में हो आत्मा का ध्यान हो सकता है । यही बात यहाँ पर कही गई है । देवसेनाचार्य ने तत्त्वसार में एक अन्य उदाहरण द्वारा कहा है कि
'सरसलिले थिरभूए दीसइ णिरु णिवडियं पि जह रयणं । मणसलिले थिरभूए दीसइ अप्पा तहा विमले ।। ४९ ।।
अर्थात् जिस प्रकार तालाब के जल के निश्चल हो जाने पर तालाब में पड़ा हुआ रत्न दिखलाई पड़ता है, उसी प्रकार मनरूपी पानी के स्थिर हो जाने पर निर्मल भाव में अपना अपना आत्मा दिख जाता है ।
तदा च परमैकाग्रचादद्बहिरर्थेषु सत्स्वपि । अन्यन्न किञ्चनाभाति स्वमेवात्मानि पश्यतः ॥ १७२॥
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