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तत्त्वानुशासन
अर्थ - इस प्रकार अन्य पदार्थों से भिन्न अपनी आत्मा का अच्छी तरह से निश्चय करके अपने भाव को आत्ममय बनाकर अन्य किसी का भी चिन्तन नहीं करता हूँ ।। १५९ ॥
विशेष - ध्यान स्थिरता का नाम है । अपने आत्मा में स्थिरता प्राप्त करने के लिए आत्मा को शुद्ध निश्चय स्वरूप की भावना करना चाहिये । भावना करते-करते जब मन स्थिर हो जाता है, तभी आत्मा का अनुभव होता है । यह ध्यान अल्प समय तक रहे तब भी उपकारी ही समझना चाहिये | क्योंकि ध्यान तो उत्तम संहनन वालों के भी अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रह सकता है, फिर हीन संहनन वालों की तो बात ही क्या ? उनकी भावना तो बहुत देर तक रह सकती है, परन्तु बीच-बीच में कुछ समय तक ही रह सकता है । अतः रागादि तथा बाह्य एवं आन्तरिक विकल्पों को छोड़कर मन को एकाग्र करके आत्मा के निरञ्जन स्वरूप का ध्यान करना चाहिये । श्री देवसेनाचार्य ने कहा है
राया दिया विभावा बहिरंतर उहवियप्प मुत्तूणं ।
एयग्गमणी झायहि निरंजणं णिययअप्पाणं ॥ १८ ॥ - तत्त्वसार चिन्ता का अभाव तुच्छभाव नहीं अपितु स्वसंवेदनरूप चिन्ताभावो न जैनानां तुच्छो मिथ्यादृशामिव । दृग्बोधसाम्यरूपस्य यत्स्वसंवेदनं हि सः ।। १६० ।। अर्थ - मिथ्यादृष्टियों के समान जैन लोगों के यहाँ चिन्ता के अभाव को तुच्छाभाव नहीं माना है कारण कि वह ( चिन्ताभाव ) सम्यग्दर्शन सम्यक्ज्ञान व साम्यभाव का जो स्वसंवेदन है, उस रूप माना गया है । नीचे की पंक्ति का ऐसा भी अर्थ हो सकता है कि चिन्ताभाव अभाव रूप नहीं है वह तो दृग-बोध के साम्यरूप का जो स्वसंवेदन है उस रूप माना गया है । इस तरह वह निषेध रूप न होते हुए विधि रूप ही है ।। १६० ।। विशेष - तत्त्वानुशासन का प्रकृत कथन मूलतः तत्त्वार्थश्लोक-वार्तिक से प्रभावित रहा है । ध्यानस्तव में कहा गया है
'नानालम्बनचिन्ताया यदेकार्थे नियन्त्रणम् ।
उक्तं देव त्वया ध्यानं न जाड्यं तुच्छतापि वा ॥ ६ ॥ ज्ञस्वभावमुदासीनं स्वस्वरूपं प्रपश्यता । स्फुटं प्रकाशते पुसस्तत्त्वमध्यात्मवेदिनः ॥ ७ ॥ अर्थात् अनेक पदार्थों का आलम्बन लेने वाली चिन्ता को जो एक ही
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