Book Title: Tattvanushasan
Author(s): Nagsen, Bharatsagar Maharaj
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 141
________________ ११० तत्त्वानुशासन आत्मा हूँ। मेरा ज्ञान दर्शन स्वरूप ही मेरा है मुझ से भिन्न एक परमाणुमात्र भी कोई पदार्थ मेरा नहीं है । योऽत्र स्वस्वामिसम्बन्धो ममाभूद्वपुषा सह । यश्चैकत्वभ्रमस्सोऽपि परस्मान्न स्वरूपतः ॥ १५१ ॥ अर्थ - इस संसार में शरीर के साथ जो मेरा स्वस्वामिभाव सम्बन्ध हुआ है और जो एकता का भ्रम है, वह भो पर द्रव्य के सम्बन्ध से है, स्वरूप से नहीं है ॥ १५१ ॥ जीवादिद्रव्ययाथात्म्य ज्ञातात्मक मिहात्मना । पश्यन्नात्मन्यथात्मानमुदासीनोऽस्मि वस्तुषु ॥ १५२ ॥ अर्थ- मैं अपने में जीव आदि द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले आत्मा को देखकर पर द्रव्यों के प्रति उदासीन हूँ ॥ १५२ ॥ स्वोपात्त देहमात्रस्ततः सद्द्रव्यमस्मि चिदहं ज्ञाता द्रष्टा सदाप्युदासीनः । पृथग्गगनवदमूर्तः ॥ १५३ ॥ अर्थ-- मैं सद् द्रव्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ किन्तु सदा उदासीन रहने वाला हूँ। मैं प्राप्त हुए अपने शरीर प्रमाण हूँ । शरीर पृथक् हुआ आकाश की तरह अमूर्तिक हूँ ॥ १५३ ॥ सन्नेवाहं सदाप्यस्मि स्वरूपादिचतुष्टयात् । असन्नेवास्मि चात्यन्तं पररूपाद्यपेक्षया ॥ १५४ ॥ अर्थ- - स्वरूप चतुष्टय ( स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव ) से मैं सदा अस्तित्व रूप ही हूँ और पररूप आदि ( परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल एवं परभाव ) से सदा नास्तित्व रूप ही हूँ ।। १५४ ॥ यन्न चेतयते किञ्चिन्नाचेतयत् किञ्चन । यच्चेतयिष्यते नैव तच्छरीरादि नास्म्यहम् ।। १५५ ।। अर्थ - जो कुछ नहीं जानते हैं, न जिनने कुछ जाना था और न भविष्य में कभी जानेंगे । इस प्रकार त्रैकालिक अज्ञानता को लिये शरीरादिक हैं वैसा मैं नहीं हूँ || १५६ ।। चेतिष्यति यदन्यथा । यदचेयत्तथा पूर्वं चेतनीयं यदत्राद्य तच्चिद्द्रव्यं समस्म्यहम् ॥ १५६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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