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तत्त्वानुशासन
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अर्थ-मैं परस्वरूप नहीं हूँ, अन्य मम स्वरूप नहीं है, मैं पर पदार्थ का नहीं है, मेरा पर द्रव्य नहीं है, पर द्रव्य पर है और मैं तो मैं ही हूँ। अन्य द्रव्य अन्य का है और मैं अपना हूँ।। १४८।।
विशेष-न मैं नारक भाववाला हूँ, न मैं तिर्यंच हूँ, न मनुष्य, देव, नारकी पर्यायवाला हूँ, न मैं पर का कर्ता हूँ, न कारियता-न कराने वाला है, न मैं उनकी अनमोदना करने वाला हूँ। न मैं मार्गस्थान स्वरूप हूँ, न गुणस्थान रूप हूँ, न जीवस्थानरूप हूँ। न जीवादि पर द्रव्य रूप हैं, न पर द्रव्य ( चेतन-अचेतन-मिश्र ) मुझ रूप हैं। न मैं बालक हूँ, न वृद्ध हूँ, न कर्ता हूँ, न करानेवाला है और न अनुमोदक हूँ। न मैं राग रूप हूँ, न द्वेष रूप हूँ, न क्रोध रूप हूँ, न मान रूप हूँ, न माया रूप हूँ, न लोभ हूँ। मैं कौन हूँ?
एगो मे सासगो आदा णाण दंसण लक्खणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।। मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ, अन्य कोई मुझ रूप नहीं, मैं पर रूप नहीं हैं। मैं ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला हूँ। ज्ञान दर्शन के अलावा शेष समस्त भाव विभाव हैं, मुझ से बाह्य हैं, संयोग मात्र हैं। अन्य अन्य का है, मैं मेरा हैं, मैं मुझ में हूँ, मैं अपने को अपने से अभिन्न देखता हआ उसी में लीनता को प्राप्त होता हूँ।
अन्यच्छरीरमन्योऽहं चिदहं तदचेतनम् । अनेकमेतदेकोऽहं
क्षयीदमहमक्षयः ॥ १४९ ॥ अर्थ-शरीर अलग है और मैं अलग हूँ। मैं चेतन हूँ और शरीर अचेतन है । यह अनेक है और मैं एक हूँ। यह विनाशवान् है और मैं अविनाशी हूँ ।। १४९ ॥
अचेतनं भवेनाहं नाहमप्यस्म्यचेतनम् । ज्ञानात्माहं न मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित् ॥ १५०॥
अर्थ संसार में परिभ्रमण करने के कारण मैं अचेतन सा हो गया हूँ किन्तु मैं अचेतन नहीं हूँ। मैं ज्ञान स्वरूप हूँ। मेरा कुछ भी नहीं है और अन्य किसी का मैं भी नहीं हूँ॥ १५० ॥ विशेष-अहमिक्को खलु सुद्धो दसणणाणमइओ सदा रूवी ।
णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥ मैं निश्चय से एक, शुद्ध, दर्शनज्ञानमयी, सदा अरूपी, अविनाशी
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