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तत्त्वानुशासन
धर्म्यध्यान के कथन की प्रतिज्ञा
तादृक्सामग्र्यभावे तु ध्यातुं शुक्लमिहाक्षमान् ।
ऐदयुगीनानुद्दिश्य
धर्मध्यानं
प्रचक्ष्महे ॥ ३६ ॥
अर्थ - परन्तु अब यहाँ वैसी सामग्री का अभाव होने पर शुक्लध्यान को धारण करने में असमर्थ वर्तमान-कालीन लोगों को लक्ष्य कर धर्मध्यान को कहता हूँ ।। ३६ ।
विशेष - शुक्लध्यान वज्रवृषभनाराच संहननधारी, पूर्वो के ज्ञाता तथा क्षपकश्रेणी पर आरोहण करने वाले को होता है - यह पूर्व श्लोक में कहा जा चुका है। चूँकि इस पञ्चम काल में वैसी योग्यता किसी में नहीं है, अतः शुक्लध्यान इस पञ्चम काल में किसी के भी नहीं हो सकता है । अतएव नागसेन मुनि ने धर्म्यध्यान का विस्तार से कथन करने की प्रतिज्ञा की है ।
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योगी को ध्यातव्य बातें ध्याता ध्यानं फलं ध्येयं यस्य यत्र इत्येतदत्र बोद्धव्यं ध्यातुकामेन
अर्थ - जो व्यक्ति या योगि पुरुष ध्यान करने के लिये इच्छुक है उसे निम्नलिखित आठ (८) बातों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये :
ध्याता- - ध्यान करने वाला !
ध्यान -- चितन क्रिया ।
ध्यान का फल - प्रयोजन, निर्जरा संवर रूप ।
ध्येय-चिंतन योग्य पदार्थ ।
यस्य - जिस पदार्थ का ध्यान करता है । (द्रव्य)
यदा यथा ।
योगिना ॥ ३७ ॥
यत्र - जहाँ ध्यान करता है । (क्षेत्र)
यदा - जिस समय ध्यान करता है । (काल)
यथा - जिस रीति से ध्यान करता है । (भाव) ।। ३७ ।।
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विशेष – अमितगतिश्रावकाचार में योगी की ज्ञातव्य बातों का
वर्णन करते हुए लिखा है
'ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं विधिः फलम् ।
विधेयानि प्रसिद्ध्यन्ति सामग्रीतो विना न हि ॥। १५/२३ ॥
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