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तत्त्वानुशासन
चतुस्त्रिशन्महाश्चर्यैः प्रातिहार्यैश्चः भूषितम् । मुनितिर्यङ्नरस्वर्गिसभाभिः सन्निषेवितम् ॥ १२५ ॥ जन्माभिषेकप्रमुखप्राप्तपूजातिशायिनम् केवलज्ञाननिर्णीतविश्वतत्वोपदेशिनम् ॥ १२६ ॥ प्रभास्वल्लक्षणाकीर्णसम्पूर्णोदनविग्रहम् । आकाशस्फटिकान्तस्थज्वलज्ज्वालानलोज्ज्वलम् ॥१२७॥ तेजसामुत्तमं तेजो ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमम् । परमात्मानमर्हन्तं ध्यायेन्निःश्रेयसाप्तये ॥ १२८ ॥ अर्थ-तथा जो आप्तों (पंचपरमेष्ठियों) में प्रथम आप्त हैं, जो देवों के भी देव हैं, जिन्होंने चार घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया है, और इसीलिये जिन्हें अनन्तचतुष्टय (अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य, अनन्त सुख) प्राप्त हुए हैं, जो पृथ्वी तल को दूर छोड़कर अर्थात् पृथ्वीतल से चार अंगुल ऊपर नभस्तल में ठहरे रहते हैं, परम औदारिक स्वरूप अपने शरीर की प्रभा से सूर्य की प्रभा को भी नीचा कर दिया है जिन्होंने, जो चौतीस अतिशय तथा आठ प्रातिहार्यों से सुशोभित हैं, मुनि तिर्यंच, मनुष्य व स्वर्ग के देव-समूहों के द्वारा सेवित हैं, जन्माभिषेक आदि पूजातिशयों को प्राप्त करने वाले हैं, केवलज्ञान के द्वारा निर्णीत समस्त तत्त्वों के उपदेश देनेवाले हैं, जिन्होंका सम्पूर्ण उन्नत शरीर, स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होनेवाले लक्षणों (१००८ चिह्नविशेषों) से व्याप्त हो रहा है । जो आकाश में स्थित स्फटिक मणि में पाई जानेवाली जाज्वल्यमान ज्वालानल के समान उज्ज्वल हैं, तेजो में उत्तम तेज रूप हैं, ज्योतियों में उत्तम ज्योति रूप हैं ऐसे अरहंत परमात्मा का मोक्ष को प्राप्ति के लिये ध्यान करें ॥ १२३-१२८ ।।
विशेष-अर्हत्, अरहंत, अरिहंत, अरुहन्त अलिहंत ये सब अरहंत के ही पर्यायवाची नाम हैं। अहं धातु से पूज्य योग में अर्हत् अरहंत-वीतरागसर्वज्ञ हितोपदेशी होने से, चार घातिया कर्मों के क्षय से अरिहन्त तथा घातिकर्मरूपी वृक्ष को जड़ से उखाड़ देने से अरुहन्त कहे जाते हैं।
णामे ठवणे हि य सं दव्वे भावे हि सगुणपज्जाया । चउणागदि संपदिमे भावा भावंति अरहंतं ।। २७॥
-बो० पा०
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