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तत्त्वानुशासन तदा तथाविधध्यानसंवित्तिध्वस्तकल्पनः । स एव परमात्मा स्याद् वैनतेयश्च मन्मथः ॥१३६॥ सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् । एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयफलप्रदः ॥१३७॥ अर्थ-ध्यान करने वाला व्यक्ति, ध्यान के बल से अपने शरीर को शून्य कर जिस समय ध्येय स्वरूप से आविष्ट हो जाता है उस समय यह स्वयं भी वैसा ( ध्येय स्वरूप ) बन जाता है इतना ही नहीं किन्तु उस समय उस प्रकार की ध्यान रूपी संवित्ति से कल्पनाओं को नष्ट करते हुए वही ध्याता, परमात्मा शिव, गरुड़ व मन्मथ ( काम) रूप हो जाता है। बस इसी परिणति को समरसी भाव, तदेकीकरण कहते हैं। अर्थात् जो जैसे ध्येय का ध्यान करता है वह स्वयं हो वैसा बन जाता है। यही लोकद्वय ( इहलोक-परलोक ) में फल को देने वाली समाधि कही जाती है ॥१३५-१३७॥
सब ध्येय माध्यस्थ किमत्र बहुनोक्तेन ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वतः । ध्येय समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्यं तत्र विभ्रता ॥१३८॥ अर्थ-ज्यादा कहने ( विवेचन करने ) से क्या लाभ, अरे, परमार्थ से जानकर व श्रद्धान कर उनमें माध्यस्थ भाव को धारण करने वाले के लिये सारे ही पदार्थ ध्येय हो सकते हैं ॥१३८॥
माध्यस्थ्य के पर्यायवाची नाम माध्यस्थ्यं समतोपेक्षा वैराग्यं साम्यमस्पृहः । वैतृष्ण्यं परमः शान्तिरित्येकोऽर्थोऽभिधीयते ॥१३९॥ अर्थ-माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, समता, निष्पृहता, विष्तृणा और परम शान्ति ये सभी एकार्थक या पर्यायवाची कहे जाते हैं ॥१३९।।
परमेष्ठियों के ध्यान से सब ध्यान सिद्ध संक्षेपेण यत्रोक्तं विस्तारात्परमागमे । तत्सर्वं ध्यानमेव स्याद् ध्यातेषु परमेष्ठिषु ॥१४०॥ अर्थ-जो यहाँ संक्षेप में कहा गया है, वह परमागम में विस्तार से
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