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तत्त्वानुशासन
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त्याग १३. कृतिकर्म प्रवृत्त १४. व्रतारोपण अर्हस्व १५. प्रतिक्रमण १६. ज्येष्ठत्व १७. मासैकवासिता १८ पर्या । १२ तप-अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, व्युत्सर्ग, ध्यान तथा ६ आवश्यक - समता-वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग - ८ + १० + १२ + ६ = ३६ | अथवा – ५ पंचाचार, १० धर्म, तप १२, गुप्ति ३ व आवश्यक छः। इस प्रकार भी आचार्य परमेष्ठी के ३६ मूलगुण माने गये हैं । इन गुणों के आश्रय से आचार्य परमेष्ठी ध्येय हैं ।
उपाध्याय परमेष्ठी
जो माधु चौदह पूर्वरूपी समुद्र में प्रवेश करके अर्थात् परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित हैं, तथा मोक्ष के इच्छुक शीलंधरों अर्थात् मुनियों को उपदेश देते हैं उन मुनीश्वरोंको उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं । ( ध० १११, १, १ ३२५० )
उपाध्याय शंका समाधान करने वाले, सुवक्ता, वाग्ब्रह्म, सर्वज्ञ और सिद्धान्त, सर्वज्ञ अर्थात् सिद्धान्तशास्त्र और यावत् आगमों के पार गामी वार्तिक तथा सूत्रों को शब्द और अर्थ के द्वारा सिद्ध करनेवाले होने से कवि अर्थ में मधुरता का द्योतक तथा वक्तृत्व मार्ग के अग्रणी होते हैं ।
५१ अंग और १४ पूर्व के ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठी के २५ मूलगुण होते हैं । २५ मूलगुणों के आश्रय से ध्येय उपाध्याय परमेष्ठी ध्यान के योग्य हैं ।
साधु परमेष्ठी
सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी या उन्नत, बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह गोचरी वृत्ति करनेवाले, पवन के समान निःसंग या सब जगह बेरोक टोक विचरने वाले, सूर्यसम तेजस्वी, सकल तत्त्व प्रकाशक, सागरसम गम्भीर, मेरु सम अकम्प व अडोल, चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुञ्जयुक्त, क्षिति के समान सर्व प्रकार की बाधाओं को सहनेवाले, सर्प के समान, अनियत वसतिका में रहनेवाले, आकाश के समान निरा-लम्बी व निर्लेप और सदाकाल परमपद का अन्वेषण करनेवाले साधु होते हैं । (ध०१ / ११, १ गाथा )
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