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तत्त्वानुशासन ___अर्थात् जीव का मोह के क्षोभ से रहित जो भाव होता है, उसका नाम धर्म है और वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र स्वरूप होकर मोक्षसुख का कारण है। उस धर्म से सम्पन्न ध्यान धर्म्यध्यान कहलाता है। ध्यानशतक के इस विवेचन पर तत्त्वानुशासन का स्पष्ट प्रभाव है।
धर्म्य लक्षण शून्यीभवदिदं विश्वं स्वरूपेण धृतं यतः ।
तस्माद् वस्तुस्वरूपं हि प्राहुर्धर्म महर्षयः ॥ ५३ ॥ अर्थ- यदि यह संसार स्वभाव से न रहता तो शून्य हो जाता, और चूंकि यह संसार स्वरूप से स्थिर रहता है इसलिए बड़े-बड़े योगीजन वस्तु स्वरूप को धर्म कहते हैं। ॥ ५३॥
विशेष-धर्म के स्वरूप पर यहाँ प्रकारान्तर से विचार किया गया है। यहाँ वस्तु के स्वरूप को धर्म कहा है। कातिकेयानुप्रेक्षा में वस्तु के स्वरूप को धर्म मानने का कथन सर्वप्रथम किया है-'वत्थुसहावो धम्मो।' जीवादि पदार्थों में जो जिसका स्वभाव है, वही धर्म कहलाता है। धर्म का यह व्यापक स्वरूप है। धर्मध्यानी योगी को धर्म के इस व्यापक स्वरूप का विचार करना चाहिये ।
धर्म्यध्यान का लक्षण ततोऽनपेतं यज्ज्ञातं तद्धयं ध्यानमिष्यते ।
धर्मो हि वस्तुयाथात्म्यमित्यापेऽप्यभिधानतः ॥५४॥ अर्थ-उस वस्तु स्वरूप से युक्त जो ज्ञान है उसे धर्म्यध्यान कहते हैं वस्तु के याथात्म्य को ऋषि प्रणीत-धर्म-ग्रन्थों में धर्म माना गया है ।। ५४ ॥
विशेष-(१) वस्तुस्वरूप धर्म से सम्पन्न ध्यान को धर्म्यध्यान कहा जाता है। यह धर्म्यध्यान का निरुक्तिपरक दूसरा अर्थ है।
अथवा जिससे धर्म का परिज्ञान होता है वह धर्म्यध्यान समझना चाहिये।
(भ० आ० ) (२) पापकार्य की निर्वत्ति और पूण्य कार्यों में प्रवृत्ति का मूल कारण एक सम्यग्ज्ञान है इसलिए मुमुक्षु जीवों के लिये सम्यग्ज्ञान ही धर्म्यध्यान श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है-(र० सा० मू० १७)। राग-द्वेष को त्याग कर
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