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तत्त्वानुशासन
लिये ( संप्रदान ) अपनी ही आत्मा से ( अपादान ) अपनी आत्मा में ( अधिकरण ), स्व-आत्मा का ( संबंध ) चितवन किया जाता है अतः छह कारक रूप जो आत्मा है उसका ही नाम ध्यान है ॥ ७३-७४ ।।
ध्यान की सामग्री संगत्यागः कषायाणां निग्रहो व्रतधारणम् ।
मनोक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यानजन्मने ॥ ७५ ॥ अर्थ-समस्त परिग्रह का त्याग, कषायों का दमन, व्रतों का धारण तथा मन एवं इन्द्रियों को विजय यह सब ध्यान की उत्पत्ति में कारण सामग्री है । ७५ ॥
विशेष—यहाँ पर ध्यान की उत्पत्ति में आवश्यक सामग्री का कथन किया गया है। परिग्रहत्याग, कषायनिग्रह एवं व्रतधारण तभी संभव है, जब मन एवं इन्द्रियों की विजय हो जाये। आत्मा स्वभाव से शुद्ध है। इसका ज्ञानोपयोग चञ्चल है । पाँचों इन्द्रियों के द्वारा रागवश यह विषयों को ग्रहण करता है तथा मन के द्वारा तर्क-वितर्क में फंसा रहता है। यदि ज्ञानोपयोग इन्द्रियों एवं मन के द्वारा कार्य करना बन्द कर दे तब इन्द्रियों एवं मन का व्यापार बन्द हो जायेगा और ऐसी अवस्था में ज्ञानोपयोग आत्मा में हो रहेगा तथा आत्मा का ध्यान हो जायेगा। देवसेनाचार्य ने कहा है
'थक्के मणसंकप्पे रुद्ध अक्खाण विसयवावारे। पयडइ बंभसरूवं अप्पाझाणेण जोईणं ॥ २९ ॥
-तत्त्वसार अर्थात् मन के संकल्पों के बन्द हो जाने पर इन्द्रियों का विषय-व्यापार अवरुद्ध हो जाता है तब आत्मा के भीतर परमब्रह्म परमात्मा का स्वरूप प्रकट हो जाता है।
मन को जीत लेने पर इन्द्रियों की विजय इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभुः। मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः ॥ ७६ ॥ अर्थ-इन्द्रियों की प्रवृत्ति व निवृत्ति करने में मन ही समर्थ है इसलिये मन को ही वश में करना चाहिये, मन पर विजय प्राप्त कर लेने पर . आत्मा जितेन्द्रिय सहज ही होता है ।। ७६ ।।
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