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तत्त्वानुशासन
निश्चय व व्यवहार ध्यान निश्चयाद् व्यवहाराच्च ध्यानं द्विविधमागमे । स्वरूपालंबनं पूर्व परालंबनमुत्तरम् ॥ ९६ ॥ अर्थ-निश्चयनय एवं व्यवहारनय के भेद से आगम में दो प्रकार का ध्यान कहा गया है। प्रथम अपने आत्मा के अवलम्बन से और द्वितीय परपदार्थ के अवलम्बन से होता है ।। ९६ ॥
निश्चय ध्यान आत्मा से अभिन्न और व्यवहार ध्यान भिन्न अभिन्नमाद्यमन्यत्तु भिन्नं तत्तावदुच्यते । भिन्ने हि विहिताभ्यासोऽभिन्नं ध्यायत्यनाकुलः ॥ ९७ ॥ अर्थ-आद्य जो निश्चय ध्यान है वह अभिन्न है उसमें स्व तथा पर का एवं ध्यान-ध्याता-ध्येय का तथा कर्ता-कर्म-करण-संप्रदानाधिकरण का भेद पाया जाता है। भिन्न ( व्यवहार ) ध्यान में जिसने अभ्यास किया है वह निराकुल हो अभिन्न को क्या ध्धा सकता है ।। ९७॥
विशेष—यहाँ व्यवहार यानपूर्वक निश्चय ध्यान बताया गया है धवल पुस्तक १३ में कथन है कि चेतन तथा अचेतन पुद्गल आदि भी ध्येय हैं । केवल ज्ञानानन्द आत्मा ही ध्येय नहीं है।
यह शरीर सप्त धातुमय है और सूक्ष्म पुद्गल कर्मों के द्वारा उत्पन्न हुआ है, उसका आत्मा के साथ सम्बन्ध है इनके संयोग से आत्मा द्रव्यभावरूप कलंक से अनादिकाल से मलिन हो रहा है। इस कारण इसके बिना विचारे ही अनेक विकल्प उत्पन्न होते हैं। उन विकल्पों के निमित्त से परिणाम निश्चल नहीं होते। उनके निश्चल करने के लिए स्वाधीन चिन्तवनों से चित्र को वश में करना चाहिए। वह स्वाधीन चिन्तन किसी आलम्बन से ही होता है । प्रारम्भ अवस्था में किसी आलम्बन बिना चित्त स्थिर नहीं होता। अतः अरहन्तादि के आलम्बनपूर्वक ध्यान करना व्यवहार ध्यान है। इसके अनन्तर आत्म अभिन्नता रूप निश्चय ध्यान की सिद्धि होती है।
आज्ञापायो विपाकं च संस्थानं भुवनस्य च । यथागममविक्षिप्तचेतसा चिन्तयेन्मुनिः ॥ ९८ ॥ अर्थ---मुनि आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और लोक
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