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तत्त्वानुशासन इसमें मात्र मन में ही चिन्तन करते हैं। इस जाप में सब संकल्प-विकल्प छोड़कर आत्मा स्वाभिमुख हो जाता है ।
४. सूक्ष्म-मन में जो णमोकार मन्त्र का चितन था वह भी छोड़ देना सूक्ष्म जाप है। जहाँ उपास्य उपासक का भेद समाप्त हो जाता है। आत्मा परमात्मा का भेद समाप्त हो जाये, उसी का आधार यह सूक्ष्म जप है। अर्थात् जहाँ मंत्र का अवलम्बन छूट जाए तब ही सूक्ष्म जप है जैसा कि पूज्यपाद आचार्यश्री ने समाधिशतक में कहा है
यः परमात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः।
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः ॥ ३१ ॥ जप शब्द में दो अक्षर हैं-ज+प ज = जकारो जन्म विच्छेदः
=पकारो पापनाशनः तस्माज्जप इति प्रोक्त जन्मपापविनाशकः । जप को पदस्थ ध्यान के ही अन्तर्गत माना गया है। ___ जप या पदस्थ ध्यान जन्म-मरण की संतति व पापसमह के लिये किया जाता है । सूक्ष्म जप निवृत्ति प्रधान है । यहाँ ध्याता-ध्येय में अभेद, अद्वैतभाव प्रगट होने लगता है""ध्याता स्व में स्व की खोज में तल्लीन होने का प्रकट पुरुषार्थ कर पुकारने लगता है
केवलसत्ति सहावो सोऽहं इदि चिंतए णाणी। कवि रत्नाकर लिखते हैं
तनु जिनमन्दिर, मनकमलासन त्यावरी चिन्मयतुंग यज जिनपद कमला निःसंग।
मेरा शरीर ही जिनमंदिर है, मन वेदी है और उस पर मेरा आत्मा 'विराजमान है वही परमात्मा है, भगवान् है, उसके सामने बैठकर मैं उसी की पूजा करता हूँ।
उस आत्मारूपी भगवान् का अभिषेक कैसे करें इसके लिये लिखा है
ज्ञानगंगाजलि क्षालोनिनिर्मल, संचितपातक भंग यज जिनपद कमला निःसंग।
(गुरुवाणी-आ० विद्यानंद जी) । अर्थात् अपने सम्यग्दर्शनरूपी जल से अपनी आत्मा का अभिषेक करें। यही सच्चा अभिषेक होगा।
श्री योगीन्दुदेव ने अमृताशीति ग्रन्थ में पदस्थ ध्यान को महिमा का चित्रण करते हुए लिखा है
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