________________
तत्त्वानुशासन
अनित्यानि शरीराणि, वैभवो न हि शाश्वत ।
नित्य सन्निहितो मृत्यु, धर्म एको हि निश्चल ॥ अनित्यादि बारह भावनाओं का चिन्तन करने से ज्ञान वैराग्य शक्ति का प्रादुर्भाव होता है और जब ज्ञान व वैराग्य की शक्ति समृद्ध हो जाती है तभी मन नियन्त्रित हो जाता है
मुनि सकलव्रती बड़भागी, भव-भोगनत वैरागी।
वैराग्य उपावन माई चिन्तौ अनुप्रेक्षा भाई॥ वैराग्य को उत्पन्न करने वाली बारह माताओं का बार-बार चिन्तवन करने से यह जीव संसार-शरीर और भोगों से विरक्त होता है। वे बारह माताएं-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ व धर्म अनुप्रेक्षाएँ हैं।
ज्ञानभावनालस्यत्यागः स्वाध्यायः । आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय है।-( स० सि ९/२० ) __ “स्वस्मै हितोऽध्यायः स्वाध्यायः" । अपने आत्मा का हित करने वाला अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है।-(चा०सा० ) - स्वाध्यायी आत्मा ही सहजता से इन्द्रियों पर विजय पा सकता है तथा स्वाध्यायी आत्मा ही बारह अनुप्रेक्षाओं का सुष्ठुरीत्या चिन्तन कर सकता है यथा--शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ, परद्रव्य माता-पितादि कोई शरण नहीं, मेरा आत्मा ही मुझे शरण है, व्यवहार में पञ्चपरमेष्ठी भी शरण हैं। संसार दुःखों का घर है, यहाँ मेरा कोई स्थान नहीं है, मेरा निवास मुक्तिपुरी शाश्वत है। में एक हूँ, शरीर अनेक है। में अन्य हूँ मुझ से भिन्न सर्व पदार्थ अन्य हैं । शरीर अपवित्र है, मैं सदा पवित्र, पावन है। कर्मों का आस्रव मेरा स्वभाव नहीं विभाव है। संवर, निर्जरा के बिना मेरा आत्मा चौदह राजू लोक में भ्रमण करता रहा है। संसार में धनकनक-कामिनी-राज्य वैभव आदि की प्राप्ति सुलभ है किन्तु एकत्वविभक्त शुद्धचिदानन्द चैतन प्रभु के समोचीन ज्ञान को प्राप्ति अति कठिन है ।
इस प्रकार बारह भावनाओं में चिन्तन करने वाला वैरागी आत्मा एकत्वविभक्त आत्मा की प्राप्ति में सतत उद्यमी हो, मन को जीत कर शुद्धात्मा में लीन हो जाता है।
पञ्चनमस्कार मंत्र जाप एवं शास्त्रों का पठन-पाठन स्वाध्याय स्वाध्यायः परमस्तावज्जपः पंचनमस्कृतेः । पठनं वा जिनेन्द्रोक्तशास्त्रस्यैकाग्रचेतसा ॥ ८० ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org