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तत्त्वानुशासन
विशेष - आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिष्टं । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥ २३ ॥
आत्मा को ज्ञान के बराबर और ज्ञान को ज्ञेय पदार्थों के बराबर कहा है अतः आत्मा और ज्ञान अभिन्न जानना चाहिये । आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी प्रवचनसार में लिखते हैं कि ज्ञान आत्मा में भेद नहीं है क्योंकि • ज्ञान आत्मा को छोड़कर नहीं रहता, अतः ज्ञान आत्मा ही है ।
जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा । परिणमदि सयं अट्ठा णाणट्टिया सव्त्रे ।। ३५ ।।
गाणं
-प्रवचनसार
-प्रवचनसार
जो जानता है वही ज्ञान है । ज्ञान गुण के सम्बन्ध से आत्मा ज्ञायक नहीं होता । किन्तु आत्मा स्वयं ज्ञानरूप परिणमन करता है और सब ज्ञेय पदार्थ ज्ञान में स्थित हैं ।
द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा ध्याता और ध्यान की अभिन्नता ध्येयार्थालंबनं ध्यानं ध्यातुर्यस्मान्न भिद्यते । द्रव्यार्थिकनयात्तस्माद्वयातैव ध्यानमुच्यते ॥ ७० ॥
अर्थ - ध्येय पदार्थ का अवलम्बन करना ध्यान कहलाता है । क्योंकि वह ध्यान ध्याता से भिन्न नहीं होता है; इसलिए द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से ध्याता हो ध्यान कहा जाता है ।। ७० ॥
कर्म और अधिकरण दोनों ध्यान
ध्यातरि ध्यायते ध्येयं यस्मान्निश्चयमाश्रितैः । कर्माधिकरणद्वयम् ॥ ७१ ॥
तस्मादिदमपि
ध्यानं
अर्थ - निश्चयनय का आश्रय लेने वाले पुरुषों के द्वारा ध्याता में ही ध्येय का ध्यान किया जाता है, इसलिए कर्मकारक और अधिकरण कारक
( क्रमशः ध्येय और ध्याता ) दोनों ध्यान कहलाते हैं ।। ७१ ।।
विशेष – आचार्य पूज्यपाद उक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं
स्वसंवेदन सुव्यक्तस्तनुमात्रो
अत्यन्त सौख्यवानात्मा
निरत्ययः ।
लोकालोकविलोकन: ।। २१ ।। - इष्टोपदेश
अर्थात् अपना आत्मा अपने ज्ञान से स्वयं प्रकाशमान भली प्रकार से जाना जाता है । शरोर के बराबर अविनाशी अनन्त सुख वाला लोकालोक को जानने वाला है ओर भी कहा है "आत्मा का ध्यान आत्मा के
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