________________
तत्त्वानुशासन
अर्थ-धर्म के ईश्वर गणधरादि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को धर्म कहते हैं। इसलिए उस धर्म से युक्त जो चिन्तन है उसे धर्म्यध्यान कहते हैं ।। ५१ ॥
विशेष-रत्नकरण्डश्रावकाचार में उपर्युक्त 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वराः विदुः' श्लोकार्ध ज्यों का त्यों आया है। तत्त्वानुशासन में यह अंश रत्नकरण्डश्रावकाचार से ही ग्रहण किया गया है। ध्यानस्तव में भी 'सद्दष्टिज्ञानवृत्तानि' पाद ( श्लोक १४ ) रत्नकरण्डश्रावकाचार से ही ग्रहण किया गया है। वहाँ धर्म्यध्यान का स्वरूप निर्देश करते हए कहा गया है
सद्दष्टिज्ञानवृत्तानि मोहक्षोभविवजितः । यश्चात्मनो भवेद्भावो धर्मः शर्मकरो हि सः ।।
अनपेतं ततो धर्माद् धर्म्यध्यानमनेकधा ।। अर्थात् जीव का मोह-क्षोभ से रहित जो भाव होता है उसका नाम धर्म है और वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र स्वरूप होकर मोक्ष सुख का कारण है। उस धर्म से अनपेत धर्म्यध्यान भी अनेक प्रकार का है। ध्यानस्तव के इस कथन में तत्त्वानुशासन के प्रकृत एवं अग्रिम श्लोक का अत्यन्त साम्य है । ध्यानस्तव के इस कथन में तत्त्वानुशासन का स्पष्ट प्रभाव है।
धर्म्यध्यान का द्वितीय लक्षण आत्मनः परिणामो यो मोहक्षोभविजितः । स च धर्मोऽनपेतं यत्तस्मात्तद्धर्यमित्यपि ॥ ५२ ॥ अर्थ-मोह के क्षोभ से रहित जो आत्मा का परिणाम है, वह धर्म कहलाता है। उस धर्म से उत्पन्न जो ध्यान है, वह धर्म्यध्यान है-ऐसा भी कहा है ।। ५२ ।।
विशेष-जो ध्यान धर्म से सम्पन्न होता है, उसे धHध्यान कहा गया है। प्रसंगतः यहाँ पर धर्म के स्वरूप का विचार करते हुए सर्वप्रथम मोक्ष-क्षोभरहित आत्मा के परिणाम को धर्म कहा है। ध्यानशतक में भी कहा गया है
'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि मोहक्षोभविवर्जितः । यश्चात्मनो भवेद्भावो धर्मः शर्मकरो हि सः ।। अनपेतं ततो धर्माद् धर्म्यध्यानमनेकधा ।। १४-१५ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org