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तत्त्वानुशासन सिद्ध परमात्मा हो जाता है। किन्तु चौथे गुणस्थान से लेकर भी आगे तक संवरपूर्वक निर्जरा होती रहती है। अतः योगी को चाहिये कि बुद्धिपूर्वक मन, वचन, काय को रोककर स्थिर बैठे तथा ध्याता-ध्येय एकमेव हो जाये । ध्यान से संवर एवं निर्जरा का कथन देवसेनाचार्य ने तत्त्वसार में भी किया है
'मणवयणकायरोहे रुज्झइ कम्माण आसवो णणं । चिरबद्धइ गलइ सई फलरहियं जाइ जोईणं ॥ ३२ ॥'
एकाग्र चिन्तारोध पद का अर्थ एकं प्रधानमित्याहुरग्रमालम्बनं मुखम् । चिन्तां स्मृति निरोधं तु तस्यास्तत्रैव वर्तनम् ॥ ५७ ॥ अर्थ-एक कहते हैं प्रधान को, अग्र कहते हैं सुख को या आलम्बन को चिन्ता कहते हैं स्मरण को, और उसके ( चिन्ता के ) वहीं अग्रभाग में लगे रहने को निरोध कहते हैं ।। ५७ ।।
विशेष-आचार्य अकलंकभट्ट ने कहा है "एकः शब्दः संख्यापदम् ।" (तत्त्वार्थराजवार्तिक) अर्थात् एक संख्या वाचक होने से यहाँ पर प्रधान अर्थ में विवक्षित है अन शब्द 'आलम्बन' तथा 'मुख्य' अर्थ में प्रयुक्त है। और चिन्ता को स्मृति कहा है। जो तत्त्वार्थसूत्र में कथित “स्मृति समन्वाहारः" का वाचक है ।
ध्यान का लक्षण द्रव्यपर्याययोर्मध्ये प्राधान्येन यपतम् । तत्र चिन्तानिरोधो यस्तद् ध्यानं बभजिनाः ॥ ५८ ॥
अर्थ-वस्तु के द्रव्य व पर्यायात्मक स्वरूप में से जिसमें प्रधानता स्थापित की हो, उसी स्वरूप में चिन्ता के लगाये रखने को, जिनेन्द्रदेव ध्यान कहते हैं ।। ५८ ॥
विशेष-(१) ध्यानशतक में हरिभद्रसूरि ने कहा है कि एकाग्रता को प्राप्त मन का नाम ध्यान है। इसके विपरीत जो अस्थिर मन है, उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता कहा जाता है । यहाँ पर जो चिन्तानिरोध का नाम ध्यान कहा गया है, वह अस्थिर मन का निरोध अथवा ऐकाय ही है । अन्तर्मुहुर्त काल तक एक वस्तु में चित्त का अवस्थान
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