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तत्त्वानुशासन अर्थात ध्यान करने वाले योगी को ध्याता, ध्येय, ध्यान की विधि और ध्यान का फल ये चार बातें जान लेना चाहिये। क्योंकि योग्य सामगी के बिना करणीय कार्य सिद्ध नहीं होते हैं।
ध्याता ध्येय ध्यान व ध्यान का फल गुप्तेन्द्रियमना ध्याता ध्येयं वस्तु यथास्थितम् ।
एकाग्रचितनं ध्यानं निर्जरासंवरौ फलम् ॥ ३८ ॥ अर्थ-जिसने इन्द्रियों एवं मन को वश में कर लिया उसे ध्याता (ध्यान लगाने वाला) कहते हैं, अपने स्वरूप से स्थित पदार्थ ध्येय (चितवन योग्य पदार्थ) कहे जाते हैं, एकाग्र चिंतन (अन्य पदार्थों या विचारों से मन को निवृत्त कर एक पदार्थ विचार में लगा देना) का नाम ध्यान है और कर्मों का अनागमन रूप संवर व कर्मों का झड़ जाना रूप निर्जरा उसके (ध्यान के) फल माने गये हैं ॥ ३८।।
विशेष-यहाँ पर संक्षेप में ध्याता, ध्येय, ध्यान और उसके फल का कथन किया गया है। निरीहवृत्ति वाला वह धर्म्यध्यान का ध्याता हो सकता है, जिसने अपनी इन्द्रियों और मन को वश में कर लिया हो। प्रारम्भिक अवस्था की अपेक्षा से जो सविकल्पक अवस्था है, उसमें विषय कषायों को दूर करने के लिए तथा चित्त को स्थिर करने के लिए पञ्चपरमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होते हैं। फिर जब चित्त स्थिर हो जाता है, तब शुद्ध-बुद्ध-एकस्वभाव निज शुद्धात्मा का स्वरूप ध्येय होता है (द्रष्टव्य बृहदद्रव्यसंग्रह तृतोयाधिकार गाथा ५५ की ब्रह्मदेवकृत वृत्ति)। ध्येय पदार्थ में निश्चलता एवं स्थिरता को ध्यान कहते हैं तथा इस धर्मध्यान के द्वारा शुभाशुभ आस्रवों का निरोध तथा कर्मों के आंशिक झरने रूप निर्जरा होतो है. । अतः संवर और निर्जरा ध्यान का फल है।
देश-काल-अवस्था-रौति देशः कालश्च सोऽन्वेष्य सा चावस्थानुगम्यताम् । यदा यत्र यथा ध्यानमपविघ्नं प्रसिद्धयति ॥ ३९ ॥ अर्थ-ध्यान करने वाले व्यक्ति को देश, (क्षेत्र) व काल का भली प्रकार से अध्ययन करके व उस अवस्था का भी सुष्ठुरीति परिशीलन करे जिससे जिस क्षेत्र में, जिस समय में व जिस रीति से ध्यान किया जाय, उसमें किसी प्रकार की बाधा न आते हुए निर्विघ्नरीत्या वह सम्पन्न हो जाय ॥ ३९ ॥
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