________________
तत्त्वानुशासन
एवं मानसिक भेद से दो प्रकार का होता है । मनुष्य, पशु-पक्षी, सरीसृप, विषवृक्ष आदि प्राणियों से होने वाला संताप आधिभौतिक तथा देवयोनि विशेष एवं ग्रहावेश आदि से होने वाला संताप आधिदैविक कहलाता है । शारीरिक एवं मानसिक सन्ताप को एक मानकर यहाँ ताप की त्रिविधता कही गई है ।
(२) जिस आत्मा में रत्नत्रय के प्रकट होने की एवं एतावता मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता पाई जाती हो, उसे भव्य कहते हैं ।
(३) हेय का अर्थ है छोड़ने योग्य और उपादेय का अर्थ है ग्रहण करने योग्य । परमार्थ की दृष्टि से बन्ध को हेय और मुक्ति को उपादेय माना गया है । शास्त्र का वास्तविक उद्देश्य हेय और उपादेय का विवेक है । क्षत्र चूड़ामणि में वादीभसिंहरि ने कहा है
हेयोपादेयविज्ञानं नो चेद्व्यर्थः श्रमः श्रुतौ ।
किं ब्रीहिखण्डनायासैस्तण्डुलानामसंभवे || २|४४
अर्थात् य एवं उपादेय का यदि विशेष ज्ञान नहीं है तो शास्त्र में परिश्रम करना निरर्थक है । चावलों के न रहने पर धान्य कूटने के परिश्रम का क्या लाभ है ?
इसी कारण ग्रन्थकार ने हेयोपादेय द्विविध तत्त्व का उपदेश सर्वज्ञ द्वारा कथित एवं भव्य जीवों के लिए त्रिविध ताप को नष्ट करके मोक्ष को प्रदान करने वाला कहा है ।
बन्ध एवं उसके कारण हेय
बन्धो निबन्धनं चास्य हेयमित्युपदर्शितम् । हेयं स्याददुःखसुखयोर्यस्माद्बीजमिदं द्वयम् ॥ ४ ॥ अर्थ-बन्ध और इसके कारण को हेय कहा गया है । क्योंकि ये दोनों -सुख एवं दुःख के बीज ( मूल कारण ) हैं, इसलिए हेय हैं ॥ ४ ॥
विशेष - (१) आगम के अनुसार २३ प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं से सम्पूर्ण लोक परिपूर्ण है । जीव जब कषाय से युक्त होता है तथा योग के द्वारा हलन चलन करता है तो वह सभी ओर से कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । इसे ही बन्ध कहते हैं । कहा भी है
‘सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
तत्त्वार्थ सूत्र ८/२
www.jainelibrary.org