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तत्त्वानुशासन
सम्यग्ज्ञान का स्वरूप याथात्म्येन
प्रमाणनयनिक्षेपैर्यो जीवादिषु पदार्थेषु सम्यग्ज्ञानं
अर्थ - जो प्रमाण, नय और निक्षेत्रों के द्वारा जीव आदि पदार्थों के विषय में ठीक-ठीक निश्चय करना है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है ||२६||
२१
निश्चयः ।
तदिष्यते ॥ २६ ॥
विशेष - ( १ ) आत्मा में अनन्त स्वभाव एवं शक्तियाँ हैं । इन सब में ज्ञान मुख्य है । क्योंकि इसी के द्वारा आत्मा का बोध होता है और आत्मा इसी के द्वारा प्रवृत्ति करता है । प्रकृत श्लोक में प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा जीवादि के यथार्थ निश्चय को सम्यग्ज्ञान कहा गया है । तत्त्वार्थसूत्र में भी तत्त्वों के ज्ञान के साधन के रूप में निक्षेप, प्रमाण एवं नय का ही कथन किया गया है
'नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः । प्रमाणनयैरधिगमः ।' (तत्त्वार्थ
सूत्र १ / ५-६ )
जैसा पदार्थ है उसको वैसा ही जानना सो प्रमाण कहलाता है । पदार्थ अनेकान्त है । अनेकान्त रूप स्वपर का स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना जाता है । प्रमाण द्वारा निश्चित हुई वस्तु के एकदेश ज्ञान को जो ग्रहण करता है, उसे नय कहते हैं । कहा भी है-- 'सकलादेश: प्रमाणाधीनः, 'विकलादेशः नयाधीनः ।' प्रमाण सम्यक् ही होता है किन्तु नय यदि प्रमाण का आश्रय छोड़ दे तो मिथ्या भी हो सकता है । प्रमाणबुद्धि सहित नय सम्यक् होता है | प्रमाण और नय के अनुसार प्रचलित लोकव्यवहार को निक्षेप कहते हैं । निक्षेप के चार भेद् हैं नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव । नय विषयी, ज्ञायक एवं वाचक है जबकि निक्षेप विषय, ज्ञेय एवं वाच्य है । यही नय एवं निक्षेप में अन्तर है ।
सम्यक्चारित्र का स्वरूप
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चेतसा
वचसा तन्वा कृतानुमतकारितैः ।
पाप-क्रियाणां यत्यागः सच्चारित्रमुषंति तत् ॥ २७ ॥ अर्थ - हृदय से, वचन से एवं शरीर से कृत ( स्वयं करना ), कारित ( दूसरों से कराना) एवं अनुमोदना ( करने वाले की प्रशंसा करना) से जो पाप क्रियाओं का त्याग है, उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं ॥। २७ ॥
विशेष - ( १ ) जब मिथ्यात्व का अभाव हो जाने से
भव्य जीवों को
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