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तत्त्वानुशासन
सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तब साथ-साथ उसे अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव से संयम धारण करने की उत्कट अभिलाषा होने लगती है। संयमाभिलापी जोव पाप क्रियाओं के त्याग में प्रवृत्त होता है, उसकी इस प्रवृत्ति को हो सम्यक्चारित्र कहते हैं। वह स्वयं तो पाप क्रियाओं का त्याग करता ही है, दूसरों से भी पाप क्रियायें नहीं कराता है और न हो करने वालों को अनुमोदना करता है ।
(२) सम्यक्चारित्र सकल अर्थात् महाव्रतरूप साधुधर्म और विकल अर्थात् अणुव्रत रूप गृहस्थ धर्म के भेद से दो प्रकार का होता है। प्रत्येक जिज्ञासु को मोक्ष की इच्छा से चारित्र को धारण करना अत्यन्त आवश्यक है। अणुव्रती की ५३ क्रियायें हैं-८ मूलगुण, १२ व्रत, १२ तप, समता, ११ प्रतिमा, ४ दान, जलछानन, रात्रिभोजनत्याग, दर्शन, ज्ञान और चारित्र । कहा भी है
'गुणवयतवसमपडिमा दाणं जलगालणं च अणत्यमियं । दंसणणाणचरित्तं किरिया तेवण्णसावया भणिया ॥' महाव्रती पञ्चपापों के सर्वथा त्यागी होते हैं तथा इसके निर्वाहार्थ वे अष्ट प्रवचनमातृका (५ समिति, ३ गुप्ति) का पालन करते हैं। उनका २२ प्रकार का परीषह जय होता है। २८ मूलगुणों का पालन करते हैं तथा यथाशक्ति उत्तरगुणों का भी परिपालन करते हैं।
मोक्ष हेतु में साध्यसाधनता मोक्षहेतुः पुनर्द्वधा निश्चयव्यवहारतः ।
तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥ २८ ।। अर्थ-पुनः निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्ष के कारण दो प्रकार के हैं। उनमें प्रथम (निश्चय) साध्यरूप है और दूसरा (व्यवहार) उसका साधन है ।। २८॥ विशेष--"जो सत्यारथ रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो"।
___ -छहढाला ३/१ "निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गा द्विधा स्थितः" :-त० सा धर्मास्तिकाय आदि का अर्थात् षद्रव्य, पञ्चास्तिकाय, सप्ततत्त्व व नव पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है तथा अंग पूर्व सम्बन्धो आगम ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तप में चेष्टा करना सम्यक्चारित्र है इस प्रकार यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।
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