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तत्त्वानुशासन 'अभिन्नकर्तृकर्मादिगोचरो निश्चयोऽथवा ।
व्यवहारः पुनर्देव ! निर्दिष्टस्तद्विलक्षणः ॥' अर्थात् अथवा हे देव ! जो कर्ता एवं कर्म आदि कारकों में भेद न करके वस्तु को विषय करता है, उसे निश्चयनय कहा गया है । व्यवहारनय उससे भिन्न है।
व्यवहार मोक्षमार्ग धर्मादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं ज्ञानमधिगमस्तेषाम् ।
चरणं च तपसि चेष्टा व्यवहारान्मुक्तिहेतुरयम् ॥ ३०॥ अर्थ-धर्म आदि का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन एवं उनको जाननी सम्यग्ज्ञान है। तपस्या में चेष्टा करना सम्यक्चारित्र है। यह (तीनों की एकता) व्यवहार से मोक्ष का कारण है ।। ३०॥
विशेष-प्रस्तुत श्लोक मे प्रकारान्तर से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के स्वरूप का विवेचन किया गया है। व्यवहारनय की अपेक्षा ये सम्यग्दर्शनादित्रय मोक्ष के कारण हैं । यहाँ धर्म आदि के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है। धर्मादि से किसका ग्रहण किया जाये-यह यहाँ विचारणीय है। योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा है
'या देवे देवताबुद्धिः गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधी: शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥'
-योगशास्त्र ३/२ किन्तु धर्मादि से यहाँ धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं पुद्गल तथा जीव इन षड्द्रकों का श्रद्धान ग्रहण करना अधिक समीचीन है। इन सबका पयःपानीवत् मिश्रण है। इससे जीव इन्हें अभिन्न समझता रहता है, जो मिथ्या है। इसका अलगाव जानना सम्यग्ज्ञान है । यह ज्ञान नियम से सम्यग्दर्शन सहचरित होता है। ऐसा न होने पर ज्ञान में सम्यक्त्वता नहीं रहती है। तप आत्माभ्युदय का साधन है। यह अष्ट प्रकार की कर्म-ग्रन्थियों को भस्म कर देता है। अतः सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के सहचरित तपस्या में चेष्टा को यहाँ सम्यक्चारित्र कहा गया है। जब ये तीनों पूर्ण होते हैं तभी साध्य की सिद्धि होती है एवं अविनाशी मोक्ष पद की प्राप्ति होती है । महापुराण में कहा गया है
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