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तत्त्वानुशासन
जीवतत्त्व निश्चय से तो द्रव्यरूप शद्ध है किन्तु कर्मबन्ध की अपेक्षा अशुद्ध है । अशुद्ध अवस्था में ही चतुर्गति में परिभ्रमण होता है। अतएव शुद्ध दशा प्राप्त करना हमारा लक्ष्य होना चाहिये। किन्तु शुद्ध दशा की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती है जब तक जीव वीतराग भावों को प्राप्त नहीं करता है। क्योंकि यह जीव अपने ही रागादि भावों से बन्धन को प्राप्त होता है और तज्जन्य संसार में सभी प्रकार के दुःख भोगता रहता है।
मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र बंध के कारण स्युमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि समासतः ।
बन्धस्य हेतवोऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ।। ८ ॥ अर्थ-संक्षेप से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्र ये तीन ही बन्ध के कारण हैं। अविरति आदि अन्य बन्ध के कारण तो इन्हीं के विस्तार हैं, अर्थात् इन्हीं के भेद-प्रभेद हैं ।। ८ ।।
विशेष-(१) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं। सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष के मार्ग होने से धर्म कहे गये हैं तथा मिथ्यादर्शन आदि संसार बढ़ाने वाले होने से बन्ध के कारण कहे गये हैं। जिस प्रकार सम्यग्दर्शन आदि के उत्तर, उत्तरोत्तर अनेक भेद होते हैं, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन आदि के भी समझना चाहिये। मिथ्यादर्शनादि तीनों का सद्भाव एक साथ पाया जाता है । क्योंकि यदि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय है तो उसका ज्ञान और चारित्र भी नियम से मिथ्या ही होता है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में समन्तभद्राचार्य ने कहा है
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।। ३ ।। इसका भावार्थ लिखते हुए पं० सदासुखदास जी ने कहा है-"जो आपका अर अन्य द्रव्यनि का सत्यार्थ श्रद्धान, ज्ञान, आचरण सो तो संसार परिभ्रमणसे छुड़ाय उत्तम सुख में धारण करने वाला धर्म है। अर आपका अर अन्य द्रव्यनि का असत्यार्थ श्रद्धान, ज्ञान, आचरण संसार के घोर अनंत दुःखनिमें डुबोवने वाले हैं, ऐसे भगवान् वीतराग कहैं हैं।"
(२) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र को समन्वित संज्ञा मिथ्यात्व है, जो पाँच प्रकार का होता है
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