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तत्त्वानुशासन
अर्थ - चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से कषाय के वश में रहने वाले प्राणी के मन, वचन, काय रूप योगों की जो अशुभ प्रवृत्ति होती है उसे मिथ्याचारित्र कहते हैं ॥ ११ ॥
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विशेष – चारित्र मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- कषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय | प्रथम तो क्रोध, मान, माया, लोभ चार कषायों का अनुभव कराता है तथा द्वितीय जीव को हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद का अनुभव कराता है 'कषायोदयात् तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य' तीव्र कषाय के वशवर्ती होकर क्रोधमान- माया लोभ स्वयं करना व दूसरों में कषाय उत्पन्न करना और चारित्रधारी तपस्वियों में दोष लगाना आदि कषायवेदनीय कर्म के बंध के कारण हैं । स्वयं क्रोधादि कषायें करना, दूसरों में उत्पन्न करना एवं उनके वशवर्ती होकर तपस्वियों के चारित्र में दोष लगाने आदि से कषायवेदनीय का बंध होता है तथा १ - धर्म का दीन-हीन प्राणी की हँसी उड़ाना, बकवास एवं मजाविया स्वभाव आदि होना, २ - नाना प्रकार की क्रीडाओं में रत रहना, शील में अरुचि होना आदि, ३- दूसरों में बेचैनी उत्पन्न करना आदि, ४-दूसरों में शोक पैदा करना एवं उनके शोक में आनन्द मानना आदि, ५- डरना, डराना आदि, ६- आचार के प्रति ग्लानि होना आदि, ७-असत्य संभाषण, परदोषदर्शन, मायाचार, तीव्रराग आदि का होना, ८ - ईषत् क्रोध, अभीष्ट पदार्थों में कम आसक्ति, स्वदार सन्तोष आदि परिणाम रहना तथा ९ - प्रबल कषाय, गुप्तेन्द्रिय छेदन, परस्त्रीगमन आदि उक्त नौ नोकषायों के बंध के कारण हैं । कषाय और नोकषाय. ( अल्प कषाय ) दोनों का ही यहाँ कषाय शब्द से उल्लेख समझना चाहिये । कषायों के आधीन हो जाने से जीव की मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति होती है । यह अशुभ प्रवृत्ति ही मिथ्याचारित्र है । चारित्र मोहनीय का स्वभाव ही संयम को रोकना है ।
बंध का प्रमुख कारण मिथ्यादर्शन
मिथ्याज्ञान मंत्री एवं ममकार अहंकार सेनापति बंधहेतुषु सर्वेषु मोहश्च प्राक् प्रकीर्तितः । मिथ्याज्ञानं तु तस्यैव सचिवत्वमशिश्रियत् ॥ १२ ॥ ममाहंकारनामानौ सेनान्यौ तौ च तत्सुतौ । यदायत्तः सुदुर्भेदो
मोहव्यूहः
प्रवर्तते ॥ १३ ॥
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