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ध्याता ध्यानं फलं ध्येयं यस्य यत्र यदा यथा।
इत्येतदत्र बोद्धव्यं ध्यातुकामेन योगिना ॥ ३७॥ १. ध्याता-इन्द्रिय और मन का निग्रह करके ध्यान करने वाला, २. ध्यान-एकाग्न चितन रूप क्रिया, ३. ध्यान का फल-निर्जरा और संवर, ४. ध्येय-यथावस्थित वस्तु अर्थात् ध्यान योग्य पदार्थ, ५. यस्यजिस पदार्थ का ध्यान करना है, ६. यत्र-जहाँ ध्यान करना है, ७. यदा-जिस समय ध्यान करना है वह काल विशेष तथा, ८. यथाजिस रीति से ध्यान करना है। इनमें अन्तिम चार अंग क्रमशः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के सूचक हैं। ग्रन्थकार ने कहा भी है कि जिस देश, काल तथा अवस्था ( आसन-मुद्रा आदि) में ध्यान की निर्विघ्नसिद्धि होती है, वही ध्यान के लिए ग्राह्य क्षेत्र, काल तथा अवस्था है। (श्लोक ३९ ) आगे ग्रन्थकार ने इन अंगों का सांगोपांग विवेचन किया है, जिनमें ध्यान सम्बन्धी अनेक विषयों का समावेश किया गया है।
ग्रन्थकार ने आगे ध्यान को एकाग्र और ज्ञान को व्यग्र (विविध मुखों अथवा आलम्बनों को लिए हुए) बतलाते हुए कहा है कि व्यग्रता की विनिवृत्ति के लिए हो ध्यान के लक्षण में 'एकाग्र' का ग्रहण किया है
एकाग्र ग्रहणं चाऽत्र वैयङ्ग्य विनिवृत्तये ।
व्यग्रं हि ज्ञानमेव स्याद् ध्यानमेकाग्रमुच्यते ॥ ५९ ।। ध्यान साधना में मन की चंचलता का निरोध परम आवश्यक होता है, बिना मन को जीते साधना को कोई भी क्रिया व्यर्थ होतो है । अतः मन को जीतने के लिए ग्रन्थकार ने महत्त्वपूर्ण उपाय बतलाते हुए कहा है
संचिन्तयन्नुप्रेक्षाः स्वाध्याये नित्यमद्यतः।
जयत्येव मनः साधुरिन्द्रियाऽर्थ-पराङ्मुखः ।। ७९ ।। अर्थात् जो साधक सदा अनुप्रेक्षाओं ( अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं ) का अच्छी तरह चिन्तन करता है, स्वाध्याय में उद्यमी और इन्द्रिय-विषयों से प्रायः मुख मोड़े रहता है वह अवश्य ही मन को जीतता है।
आगे ग्रन्थकार स्वाध्याय की महत्ता बतलाते हुए कहा है कि स्वाध्याय से ध्यान को अभ्यास में लावे और ध्यान से स्वाध्याय को चरितार्थ करे। ध्यान और स्वाध्याय दोतों की सम्पत्ति-सम्प्राप्ति से
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