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आराधना पर अपनी मूलाराधना दर्पण टीका (गाथा १७०७) में अनेक पद्य उद्धृत करते हुए इन्हें 'तत्र भवन्तो भगवद्रामसेनपादाः'-कहकर ग्रंथकार गमसेन के वचनों को भगवान् रामसेन के वचन कहकर उद्धृत करना उन्हें 'भगवज्जिनसेनाचार्य जैसा गौरव प्रदान किया है। इन सबसे इस ग्रन्थ की तथा ग्रन्थकार की प्रतिष्ठा ज्ञात हो जाती है।
इस महान् ग्रन्थ के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि ग्रन्थकर्ता अपने अनेक पूर्वाचार्यों से भी प्रभावित थे। आचार्य अमृतचन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य का आपने गहन अध्ययन अवश्य किया होगा। क्योंकि अमृतचन्द्राचार्य द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द रचित समयसार आदि ग्रन्थों पर लिखी गई टीकाओं और इनके तत्वार्थसार का तत्त्वानुशासन पर मात्र गहरा प्रभाव हो नहीं अपितु निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों का सन्तुलन और सुमेल इस ग्रन्थ में भी स्पष्ट है।
तत्त्वानुशासन के कर्ता ने इसमें प्रतिपाद्य विषय की गम्भीरता और अपनी लघुता प्रगट करते हुए लिखा है
यद्यप्यत्यन्त-गम्भीरमभूमिर्मादृशामिदम् ।
प्रावर्तिषि तथाप्यत्र ध्यान-भक्ति-प्रचोदितः ।। २५३ ।। अर्थात् यद्यपि इस ग्रन्थ में प्रतिपाद्य ध्यान का विषय अत्यन्त गम्भीर है, तो भी ध्यान-भक्ति से प्रेरित हुआ मैं इसमें प्रवृत्त हुआ हूँ। आगे के पद्यों में कहा है-इस रचना में छद्मस्थ के कारण अर्थ तथा शब्दों के प्रयोग में जो कुछ स्खलन हुआ हो उसके लिए श्रुतदेवता मुझ भक्ति प्रधान (ग्रन्थकर्ता) को क्षमा करें। मेरो मंगलकामनायें हैं कि वस्तुओं के याथात्म्य (तत्त्व) का विज्ञान, श्रद्धान और ध्यानरूप सम्पदायें भव्य-जोवों को अपनी स्वरूपोपलब्धि के लिए कारणोभूत होवें। आध्यात्मिक विद्या का महनीय काव्य :
सहज, सरल और बोधगम्य पद्य शैली में आध्यात्मिक जैसे दुरूड विषय को संक्षेप में प्रस्तुत करने वालो कृति को आध्यात्मिककाव्य कहना कोई अत्युक्ति नहीं है। इस ग्रन्थ के अध्ययन के बाद तो कोई भी सुधी पाठक इसका अनुभव स्वयं कर सकता है । यहाँ तत्त्वानुशासन को विषयगत प्रमुख विशेषतायें प्रस्तुत हैं
ग्रन्थकार आचार्य ने मंगलाचरण में वंदना के पश्चात् सर्वज्ञ की
१. मुख्तार युगवीर, प्रकाशक वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट, दिल्ली १९६३ ।
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