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परमात्मा प्रकाशित होता है । आगे ग्रन्थकार ने ध्यान के भेद-प्रभेदों एवं अष्टांगयोग का विस्तृत विवेचन किया है । आत्मा के ध्येय की ही प्रमुखता क्यों दी जाती है ? ऐसा प्रश्न करने वालों को समझाते हुए आचार्य कहते हैं
सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते । ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतमः स्मृतः ।। ११८ ।। अर्थात् ज्ञाता होने पर ही ज्ञेय ध्येयता को प्राप्त होता है । इसलिए ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ही ध्येयतम ( सर्वाधिकध्येय ) है !
इस प्रकार ध्यान का सांगोपाङ्ग विवेचन वाला सम्प्रदाय निरपेक्ष एक महान् ग्रन्थ है । वस्तुतः अध्यात्म कभी किसी सम्प्रदाय का विषय नहीं हो सकता। इसे तो व्यक्ति अपनी परम्पराओं से जोड़ लेता है । किन्तु वास्तव में यह तो आत्मोत्कर्ष का वह सार्वभौमिक और शाश्वत मार्ग है जिसमें सभी जीव समभाव से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रयत्न करता है और अन्ततः उसे प्राप्त कर लेता है | अन्त्य मंगल में आचार्य ने जिस प्रकार सभी की अपूर्व मंगल कामना अपने ग्रन्थ के अन्त में की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है—
देह ज्योतिषि यस्य मज्जति जगद् दुग्धाम्बुराशाविव, ज्ञान ज्योतिष च स्फुटत्यतितरामों भूर्भुवः स्वस्त्रयी । शब्द - ज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थाश्चका सन्त्यमी,
स श्रीमानमराचितो जिनपतिर्ज्योतिस्त्रयायास्तुः नः ।। २५९ ।। अर्थात् जिसकी देह-ज्योति में जगत् ऐसे डूबा रहता है जैसे कोई. क्षीरसागर में स्नान कर रहा हो; जिसका ज्ञान - ज्योति में भूः भुवः और स्वः अर्थात् क्रमशः अधो, मध्य और स्वर्गलोक की त्रयी अत्यन्त स्पष्ट प्रकाशमान हो रही है, दर्पण के समान जिनकी शब्द ज्योति ( वाणी के प्रकाश ) में स्व-पर रूप सभी पदार्थ झलक रहे हैं, जो अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मी से युक्त और देवों द्वारा वन्दनीय हैं - ऐसे जिनेन्द्रदेव हम लोगों को देहज्योति, ज्ञानज्योति और शब्दज्योति रूप ज्योतित्रय प्रदान करने वाले बनें ।
इस ग्रन्थ के प्रस्तुत संस्करण में अनुवादक विद्वान् डॉ० श्रेयांसकुमार जैन ने जहाँ अपनी प्रतिभा कौशल का अच्छा परिचय दिया है वहीं पूज्य १०५ उपाध्याय भरतसागरजी महाराज ने ध्यान योग तथा साधना से
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