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विरोध में सामञ्जस्य
जो धर्म जीवमात्र से मंत्री भाव रखने और उत्तम क्षमा का अभ्या। करसे का उपदेश देता है उसे अपने विचार-क्षेत्र में उदार और सामञ्जस्य दृष्टि का पोषक होना आवश्यक है। जैन धर्म की यह उदार और सामञ्जस्य दृष्टि उसके स्याद्वाद और नयवाद में पाई जाती है। पहले तो यह संसार ही बड़ा विचित्र और नानारूप एवं विषमशील है। दूसरे जितने जीव है वे सभी अपनी अपनी विभिन्न परिस्थितियों के वशीभूत होने से अपना अपना भिन्न दृष्टिकोण रखते है। तीसरे काल अपनी परिवर्तन-शीलता द्वारा किसी भी सजीव या अजीव पदार्थ को अधिक समय तक एकरूप नहीं रहने देता। और चौथे प्रत्येक वस्तु अपने अपने अनन्त गुण-धर्म रखती है और अनन्त पर्यायें बदल सकती हैं। ऐसी अवस्था में परि किसी वस्तु के सम्बन्ध में देश-कालादि का विचार किये बिना कोई बात एकान्त बुद्धिसे कही जायगी तो वह सर्वथा सत्य न हो सकेगी । वह अंधे के एकांग स्पर्श मात्र से प्राप्त किये हुए हाथी के ज्ञान के समान एकांगी होगी । तथापि हम वस्तु के समस्त धर्मों का एक साथ विचार व कथन भी तो नहीं कर सकते । एक समय में किसी एक ही धर्म का विचार तो किया जा सकेगा। अतएव जब हम अन्य संभावनाओं का विचार छोड़कर वस्तु के स्वरूप-विशेष का कथन करते हैं तब वह एकान्त-दूषित होता है, और जब हम उन अन्य संभावनाओं का ध्यान रखकर कोई बात कहते हैं तब हम अनेकान्तवादी और सत्य है। इस दृष्टि में संसार को जितनी प्रवृत्तियां है वे सब अपनो अपनो विशेषता रखती है, और अपनी आनी परिस्थिति में उनका औचित्य भी हो सकता है । किन्तु वे दूषित तब हो जाती हैं जब वे अपने देश, काल व मात्रा आदि की मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगती हैं । स्याद्वाद और अनेकान्त में वस्तुस्वरूप के कथन में इन्हीं विशेष दृष्टिकोणों पर जोर दिया गया है जिनके द्वारा हम विरुद्ध दिखाई देने वाली वातों में भी परस्पर सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं। कोई किसी वस्तु को किसी विशेष गुण को लक्ष्य करके 'है' कहता है, और कोई उससे अन्य गुण को लक्ष्य करके कहता है 'नहीं' । यदि हम दोनों के लक्ष्यों को जान जायं, तो फिर हमें उन दोनों के 'है' और 'नहीं' में विरोध दिखाई नहीं देता, किन्तु सामंजस्य और परिपुरकता दृष्टिगोचर होगी। इसी कारण कहा गया है कि जैनी अपने अनेकान्त द्वारा समस्त मिथ्यामतों के समूह में ही पूर्णसत्य देखने का प्रयत्न करता है। यदि आज का विरोध और कषायग्रस्त संसार इस अनेकान्तात्मक विचारसरणि और अहिंसात्मक वत्ति को अपना ले तो उसके समस्त दुःख दूर हो जायं और मनुष्य समाज में शांति, मुख और बधुत्व की स्थापना हो जाय ।
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