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तत्व-समुच्चय
तीन प्रकारका होता है। वस्तुको जो स्वरूप भविष्यमें प्राप्त होगा उसे वर्तमानमें ही उस रूप मानना भावि नोआगम द्रव्य-निक्षेप है, जैसे युवराजको गजा मानना । तथा किसी व्याक्तिका कर्म जिस प्रकारका हो, अथवा वस्तुके संबंधमें लौकिक मान्यता जैसी हो गई हो उसके अनुसार ग्रहण करना कर्म या तव्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिरक्षेप है। जैसे जिस व्यक्तिमें दर्शनविशुद्धि विनय आदि तीर्थकर नामकर्मका बन्ध करानेवाले लक्षण दिखाई दे उसे तीर्थकर ही कहना, अथवा भरे कलश, दर्पण आदि पदार्थोंको लोकमान्यतानुसार मंगलीक मानना ॥६-७।।
४. भावनिक्षेप तत्कालवी पर्यायके अनुसार ही वस्तुको संबोधित करना या मानना भावनिक्षेप है। इसके भी द्रव्यनिक्षेपके समान दो भेद हैं-आगम भावनिक्षेप और नोआगम भावनिक्षेप । जैसे, अरहंत-शास्त्रका ज्ञायक जिस समय उस ज्ञानमें अपना उपयोग लगा रहा है उसी समय अरहंत है, यह आगम भाव निक्षेप है। तथा जिस समय उसमें अरइतके समस्तगुण प्रकट हो गये हैं उस समय उसे अरहंत कहना तथा उन गुणोंसे युक्त होकर ध्यान करनेवालेको केवलज्ञानी कहना नोआगम भाव निक्षेप है ॥ ८-९॥
अन्य जिन आचार्योंने द्रव्यको गुण और पर्यायवान् कहा है, उनका उन लक्षणों द्वारा कहा हुआ वस्तु-स्वरूप भी इसी प्रकार है, ऐसा जानना चाहिए ॥१०॥
इन्हीं निक्षेपोंमें अपनी इष्ट बातको विभाजित करके कहना चाहिये । यह बतलानेके लिये यहां निक्षेपोंका सूत्र रूपसे व्याख्यान किया गया है ॥ ११ ॥
इन निक्षेपोंका नयों के भीतर अन्तर्भाव इस प्रकार समझना चाहिये :-- नाम निक्षेपका अन्तर्भाव शब्दनयमें, स्थापना निक्षेपका स्थूल ऋजसूत्र नयों द्रव्य निक्षेपका उपचरित उपनयमें, तथा भाव निक्षेपका पर्यायार्थिक नयमें ॥१२
जो निक्षेप, नय और प्रमाणके स्वरूपको जानकर तत्त्वका विचार करते हैं वे तथ्य और तत्वको खोजके ठीक मार्गमें लगकर तथ्य और तत्त्वको प्राप्त कर लेते हैं ॥ १३ ॥
__ यदि कोई गुण और पर्यायके लक्षण व स्वभावको तथा निक्षेप नय और प्रमाणके स्वरूपको उनके भेदोपभेदों सहित जान लेता है तो उसे द्रव्यके स्वभावका बोध हो जाता है ॥१४॥
[देवसेनकृत नयचक्र]
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