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इस प्रशस्ति में वसुनन्दि ने अपनी गुरु-परम्परा इस प्रकार बतलाई है: - कुन्दकु न्दाम्नाय में क्रमश: श्रनिन्दि, नयनन्दि, नेमिचन्द्र और वसुनन्दि हुए। वसुनन्दि ने यह 'उपासकाध्ययन' अपने गुरु नेमिचन्द्र के प्रसाद से वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर भव्यों के उपकारार्थ बनाया। इसका प्रमाण ६५० श्लोकों के बराबर ( एक श्लोक बत्तीस अक्षरों के बराबर मानकर ) है । ग्रंथकार को यह विषय परI स्परा મે प्राप्त हुआ था, इसका उल्लेख गाथा ५४६ में किया गया है । ग्रंथ के प्रारम्भ की निम्न गाथा ३ में कहा गया है कि विपुलाचल पर्वत पर भगवान् महावीर के मुख्य गणधर इन्द्रभूति गौतम ने जो उपदेश श्रेणिक राजा को दिया था वही गुरुपरिपाटी से प्राप्त कर यहां कहा जाता है । सुनिये -
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विलागिरिपव्वये यं इंद्रभूइणा सेणियम्स जह दिहं ।
तह गुरुपरिवाडीए भणिज्जमाणं णिसामेह ||२॥
इस पर से जाना जाता है कि ग्रंथकार के मन में वही सातवें श्रुतांग उपासकाव्ययन की परम्परागत धारणा थी, और उन्होंने अपने ग्रंथ का नाम भी वही रखा था । वसुनन्दि की गुरुपरम्परा में प्रकट किये गये 'नयनन्दि' व 'नेमिचंद्र नाम तो जैन साहित्य में विख्यात है, किन्तु उनको उक्त परम्परा नहीं पाई जाती । इसलिये नन्द का कालनिर्देश करना कठिन है ।
वसुनन्दी श्रावकाचार हिन्दी अनुवाद सहित सम्वत् १९६६ में जैन सिद्धान्त प्रचारक मण्डली, देवचन्द, की ओर से छपा था। इसके एक सुसम्पादित संस्करण की आवश्यकता थी। अभी अभी इसका पं० हीरालालजी शास्त्री द्वारा संपादित संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, से निकला है ।
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मुनि धर्म [१]
यह अवतरण दशवैकालिक सूत्र का तीसरा अध्ययन है । दशवैकालिक श्वेताम्बर आगम का एक प्रमुख ग्रंथ है और उसकी गणना चार मूल सूत्रों में की गई है । अनुश्रुति है कि सेज्जंभत्र अपनी पत्नी को गर्भवती अवस्था में छोड़ कर मुनि हो गये थे । उनका पुत्र 'मनक' बड़ा होने पर अपने पिता का शिष्य बनने के लिये उनके पास गया और उसी के उपदेश के लिये यह ग्रंथ रचा गया । यह घटना महावीर निर्वाण के लगभग सौ वर्ष पश्चात् की कही जाती है। इस मंत्र में कुल १२ अध्ययन हैं । इनमें चतुर्थ व नवम अध्ययन में गद्य के अंश भी पायें
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