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में शिवकोटि मुनीश्वर और उनकी चतुष्टय मोक्षमार्ग की आराधना के लिये हितकारी वाणी का उल्लेख है । प्रभाचन्द्र के आराधना कथा-कोष व देवचन्द्र कृत गजावली-कथे (कनाडी) में शिवकोटि को स्वामी समन्तभद्र का. शिष्य बतलाया गया है। निश्चयतः तो कहना कठिन है किन्तु अनुमानतः इन सब उल्लेखों के आधारभूत आचार्य ये ही भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य हैं जो इस्वी के दूसरी शताद्धि में या उसके लगभग हो सकते हैं । जो हो, प्रस्तुत ग्रंथ एक बहुत ही प्राचीन, सुप्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण प्राकृत रचना है। एक मत यह भी है कि दिगम्बर व श्वेताम्बर के अतिरिक्त जो तीसग जैन सम्प्रदाय 'यापनीय' नामक प्राचीन काल में प्रचलित रहा है और जो दिगम्बर सम्प्रदाय के अचेलकत्व
और श्वेताम्बर सम्प्रदाय की स्त्रीमुक्ति की मान्यता को स्वीकार करता था, यह ग्रंथ उसी के साहित्य का अंग रहा है। [ देखिये जैन साहित्य और इतिहास, पं० नाथूराम प्रेमी कृत, पृ. २९ आदि]
[भगवती अराधना, हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित, अनन्तकीर्ति ग्रंथ माला ८, बम्बई १९८९ ]
स्याद्वाद यह प्रकरण 'नयचक्रा से लिया गया है। यही ग्रंथकर्ता के लघुनयचक्र की अपेक्षा बड़ा होने से 'वृहत् नयचक्र भी कहलाता है । इसमें ४२३ गाथाएं हैं । ग्रंथ का अन्तिम गाथाओं में इस रचना के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें बतलाई गई हैं । वे गाथाएं ये हैं---
जइ इच्छह उत्तरि अण्णाणपहोवहिं सुलीलाए । ता णाएं कुणह मई णयचक्के दुणयतिमिरमत्तण्डे ।।४१७|| सुणिऊण दोहरत्थं सिग्धं हसिऊण सुहकरो भणइ । एत्थ ण सोहइ अत्था गाहाचंधेण तं भणह ॥४१८॥ सियसद-सुणय-दुणय-दणु-देह विदारणेक-वरवीरं । तं देवमेणदेव णयचक्कयरं गुरुं णमह ॥४२१॥ दव्वसहावयास दोहयवंधण आसि जं दिटुं । गाहावंधेण पुणो रइयं माहल्लधवलेण ॥४२ ॥ दुममारगोण पोय पेरिय संत जह चिरं गहुँ । सिरिदेवसेण नुणिणा तह णयचक्कं पुणो रइयं ॥४२३॥
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