Book Title: Tattva Samucchaya
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 205
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ ध्यान यह प्रकरण भगवती आराधना से संकलित किया गया है । इस ग्रंथ में २१६६ गाथाएं हैं जिनमें बहुत विशदता और विस्तार से दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं का वर्णन किया गया है । ग्रंथ का नाम यथार्थतः 'आराधना' है और भगवती उसका विशेषण, जैसा कि निम्न गाथाओं से स्पष्ट है । ग्रंथ की आदि गाथा है सिद्धे जयप्पसिद्धे चउम्विहाराहणा-फलं पत्ते । वंदित्ता अरिहंते बुच्छं आराहणा कमसो ॥१॥ इसी प्रकार २१६२ वीं गाथा में कहा गया है आराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा || और २१६४ वीं गाथा है - आराधणा भगवदी एवं भत्तीए वणिदा संती। संघस्स सिवज्जास य समाधिवरमुत्तमं देउ ।। ग्रंथ-कर्ता ने अपना परिचय गाथा २१६१-६२ में इस प्रकार दिया है अजजिणणंदिगणि-सत्वगुत्तगणि-अजमित्तणंदीणं । अवगमिय पादमूले सम्भं सुत्तं च अत्थं च ॥ पुवायरियणिबद्धा उपजीवित्ता इमा ससत्तीए । आराधणा सिवजेण पाणिदलभोइणा रइदा ।। इनसे इतनी ही बात ज्ञात होती है कि 'सिवज' (शिवार्य) ने आर्य जिननन्दि गणी, सर्वगुप्तगणी और आर्य मित्रनन्दि से आगम पढ़कर तथा यथाशक्ति पूर्वाचार्यों द्वारा रचित एतद्विषयक ग्रंथों का आधार लेकर यह 'आराधना' ग्रंथ रचा । शिवभूति नामक एक आचार्य का उल्लेख कल्पसूत्र की स्थविरावली में पाया जाता है । आवश्यक मूलभाष्य की गाथा १४५-१४८ में भी शिवभूति का उल्लेख है और उनके द्वारा ही वीर निर्वाण से ६०९ वर्ष पश्चात् ‘बोडिक' (दिगम्बर) संघ की उत्पत्ति कही गई है कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने भावपाहुड की गाथा ५३ में शिवभूति के भावविशुद्धि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करने की बात कही है, तथा जिनसेन कृत हरिवंशपुराण ६६-२५ में लोहार्य (वी. नि. ६८३ ) के पश्चाद्वर्ती आचार्यों में शिवगुप्त मुनीश्वर का उल्लेख आया है जिन्होंने अपने गुणों से अहंद्रालि पद को धारण किया था। आदिपुराण के प्रारम्भिक श्लोक ४९ For Private And Personal Use Only

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