Book Title: Tattva Samucchaya
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 203
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२ एक को दूसरे का विस्तृत व संक्षिप्त रूपान्तर कहा जाय तो कोई आश्चर्य न होगा। किन्तु वर्तमान में उनके पूर्वापरत्व के सम्बन्ध में प्रमाणाभाव के कारण कुछ नहीं कहा जा सकता। इस ग्रंथ में कुल ४८९ गाथाएं हैं जिनमें बारह भावनाओं का खूब विस्तार से वर्णन किया गया है । [प्रकाशित हिन्दी अनुवाद सहित जैन ग्रंथरत्नाकर कार्यालय, बबई, १९०४ ] परीपह यह उत्तराध्ययन के दूसरे अध्ययन का पूरा पद्य भाग है। उत्तराध्ययन श्वेताम्बर आगम के ४ मूलसूत्रों में एक प्रधान रचना है और उसके अनेक सूक्त स्वयं महावीर स्वामी द्वारा उपदिष्ट माने जाते हैं। उत्तराध्ययन में कुल ३६ अध्ययन हैं। २९ वा अध्ययन पूरा और अन्य कुछ अध्ययनों का प्रास्ताविक भाग गद्य में है, शेष सब रचना पद्यात्मक है। कुछ अध्ययन कथात्मक हैं और काव्य के गुणों से युक्त हैं, अन्य विशेषत: अन्त के अध्ययन सैद्धान्तिक हैं। अनेक प्रकरण व गाथाएं ऐसी हैं जिनका वैदिक व बौद्ध साहित्य से अत्यधिक साम्य है, उदाहरणार्थ नौवां अध्ययन 'नमि-पव्वजा' और विशेषतः उसकी १४ वीं गाथा जो इस प्रकार है-- सुहं वसामो जीवामो जेसि मो नत्थि किंचण । मिहिलाए उज्झमाणीए न मे डझइ किंचण || यह गाथा प्राय: इसी रूप में पाली साहित्य में भी पाई जाती है। इसका प्रथम चरण कुछ थोड़े से हेर-फेर के साथ --' सुसुखं वत जीवाम'-धम्मपद के 'सुखवग्ग' की चार गाथाओं में आया है। एक गाथा की तो प्रथम पंक्ति है 'सुसुखं वत जीवाम येसं नो नत्यि किंचन' । योगवासिष्ट्य का 'मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किञ्चन दयते' सुप्रसिद्ध ही है । [ उत्तराध्ययन के अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। डा. जार्ल चापेंटियर का संस्करण उपसला (जर्मनी) से १९२२ में प्रकाशित हुआ या] छह द्रव्यः सात तत्वः नवपदार्थ यह प्रकरण द्रव्य-संग्रह में से लिया गया है । इस ग्रंथ के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र हैं जो गंगनरेश मारसिंह द्वितीय तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वि० For Private And Personal Use Only

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