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इन गाथाओं में ध्यान देने योग्य बात यह कही गई है कि यह नयचक्र पहले 'दव्वसहाव-पयास' ( द्रव्यस्वभाव-प्रकाश ) नाम से दोहाबद्ध रचा गया था जिसे सुनकर किसी 'शुभकर' ने हंस कर कहा कि यह अर्थ दोहा छंद में शोभा नहीं देता, इसे गाथाबद्ध कीजिये। अतएव जो द्रव्यस्वभाव प्रकाश दोहकबद्ध रचा गया था उसे माइल्लदेव ( माहल्लधवल भी पाठ है ) ने गाथा बद्ध रचा। इस पर से ऐसा अनुमान होता है कि यह रचना पहले अपभ्रंश प्राकृत में रही होगी, क्योंकि दोहा छंद का प्रयोग पहले पहल हमें अपभ्रंश में ही दिखाई देता है । शुभकर कोई प्राचीन प्रणाली के पक्षपाती रहे होंगे जिन्होंने इस विद्वत्तापूर्ण गंभीर विवेचन के लिये अपभ्रंश जैसी सामान्य लोक भाषा को अनुपयुक्त समझा होगा। अतएव संभवतः देवसेन के कोई शिष्य (माहल्लदेव) ने उसे गाथाबद्ध करने में कर्ता को सहायता पहुंचाई होगी।
देवसेन की अनेक अन्य प्राकृत रचनाएं पाई गई हैं। उनकी दर्शनसार नामक रचना में जैन सम्प्रदाय के इतिहास के संबंध की बहुत सी वार्ता उपलभ्य है। इसी के अन्त में उन्होंने कहा है :
पुवायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयथ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ ४९॥ रइओ दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए नवए ।
सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥ ५० ॥ इन गाथाओं से हम जान जाते हैं कि देवसेन ने धारा नगरी में रहते हुए दर्शनसार की रचना विक्रम संवत् ९९० में पूरी की थी। उन्होंने अपनी एक अन्य रचना भावसंग्रह में अपना परिचय इस प्रकार दिया है
सिरिविमलसेणगणहर-सिस्सो णामेण देवसेणुप्ति ।
अबुद्दजण-बोहणत्थं तेणेयं विरइयं सुत्तं ॥ इसपर से देवसेन के गुरु का नाम विमलसेन गणी जाना जाता है ।
[ नयचक्र देवसेन की दो अन्य रचनाओं लघुनयचक्र और आलापपद्धति सहित माणिकचंद्र दिग, जैन ग्रंथमाला १६ में 'नयचक्रसंग्रह' नाम से प्रकाशित हो चुका है । बम्बई १९२० ]
नयवाद यह संकलन लधु नयचक्र पर से किया गया है जो देवसेन सूरि की रचना है। इसमें कुल ८७ प्राकृत गाथाएं हैं जिन में आदितः द्रव्यार्थिक
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